‘शिक्षा’ पाना हो गया दूभर,
जब से यह व्यापार बनी।
ज्ञान की गंगा सूख रही है,
शातिरों की दुकान चली।।”
👉शिक्षा के व्यावसायीकरण और उससे उपजी समस्याओं पर गहरा कटाक्ष करती मेरी शायरी न केवल एक भावनात्मक अभिव्यक्ति है, बल्कि समाज में शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे पतन को भी उजागर करती है।
👉 एक कड़वी हकीकत यह है कि
शिक्षा, जो कभी ज्ञान, नैतिकता और जीवन मूल्यों की आधारशिला मानी जाती थी, आज एक विशाल व्यवसाय बन चुकी है। प्राचीन भारत में गुरुकुलों की परंपरा थी, जहां गुरु अपने शिष्यों को बिना किसी भेदभाव के ज्ञान प्रदान करते थे। लेकिन आज के दौर में शिक्षा एक ऐसा बाजार बन गया है, जहां डिग्रियां, सर्टिफिकेट और रैंकिंग्स की कीमत तय होती है, न कि ज्ञान की।
👉 अच्छी शिक्षा अब गरीब और मध्यम वर्ग के लिए एक बोझ बन गई है। महंगी फीस, कोचिंग संस्थानों की लूट, और निजी स्कूलों-कॉलेजों की मनमानी ने इसे एक ऐसा सपना बना दिया है, जो हर किसी की पहुंच से बाहर होता जा रहा है।
👉 शिक्षा का असली मकसद है व्यक्ति का सर्वांगीण विकास: बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक। लेकिन आज शिक्षा केवल नौकरी पाने का जरिया बनकर रह गई है। स्कूलों और कॉलेजों में रट्टा मारने की संस्कृति, परीक्षा में नंबर लाने की होड़, और प्रतिस्पर्धा ने ज्ञान के प्रति जिज्ञासा को खत्म कर दिया है। बच्चे किताबों को बोझ की तरह ढोते हैं, लेकिन उनमें जीवन के लिए जरूरी समझ और संवेदनशीलता का विकास नहीं हो पाता।
इसके अलावा, शिक्षा का स्तर भी असमान है। सरकारी स्कूलों में संसाधनों की कमी और शिक्षकों की उदासीनता है, तो निजी संस्थानों में मुनाफे की भूख। दोनों ही स्थितियों में असली हानि विद्यार्थियों की होती है। यह कटु सत्य है कि, “शिक्षा का स्रोत अब शुद्ध नहीं रहा, बल्कि प्रदूषित होकर केवल दिखावे का रह गया है।”
👉शिक्षा क्षेत्र में माफिया तंत्र की मौजूदगी को उजागर करता है। कोचिंग संस्थान, निजी विश्वविद्यालय, और डिग्री बेचने वाली दुकानें इस माफिया तंत्र का हिस्सा हैं। ये संस्थान मोटी फीस वसूलते हैं, लेकिन बदले में न गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देते हैं और न ही नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं। कई बार तो फर्जी डिग्रियां और पेपर लीक जैसे घोटाले भी सामने आते हैं, जो इस तंत्र की गहरी जड़ों को दिखाते हैं।
उदाहरण के लिए, भारत में इंजीनियरिंग, मेडिकल और प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में प्रवेश परीक्षाओं के लिए कोचिंग संस्थानों का बोलबाला है। ये संस्थान लाखों रुपये की फीस लेते हैं, लेकिन हर छात्र को सफलता की गारंटी नहीं दे सकते। फिर भी, माता-पिता और छात्र सामाजिक दबाव और भविष्य की चिंता में शातिरों के चक्कर में पड़ जाते हैं। यह शातिरों की ऐसी दुकान है, जो सपनों को बेचती है, लेकिन हकीकत में केवल मुनाफा कमाती है।
👉शिक्षा के इस व्यावसायीकरण का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। सबसे बड़ा प्रभाव है। अमीर लोग अपने बच्चों को महंगे स्कूलों और विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ा सकते हैं, लेकिन गरीब और मध्यम वर्ग के लिए यह संभव नहीं। नतीजा यह है कि सामाजिक गतिशीलता रुक रही है, और गरीब हमेशा गरीब बना रहता है।
इसके अलावा, शिक्षा का यह रूप युवाओं में तनाव और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को भी बढ़ा रहा है। आत्मविश्वास की जगह असुरक्षा, और जिज्ञासा की जगह रटने की आदत ने नई पीढ़ी को खोखला कर दिया है।
👉 मेरी निजी राय है कि, “निजी संस्थानों पर सरकारी नियंत्रण की जरूरत है ! फीस व शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर सख्त नियम बनाए जाएं, ताकि शिक्षा माफिया की मनमानी पर लगाम लगे।”
👉 शिक्षा की वर्तमान स्थिति पर अनेक सवाल उठाती है और हमें सोचने पर मजबूर करती है कि हम अपनी भावी पीढ़ियों को क्या दे रहे हैं ?
✒️श्याम सिंह पंवार कानपुर।
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