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लेख/विचार

रेड क्रॉस सोसाइटी में ज्यादा से ज्यादा लोगों को सदस्य बनाया जाए। जिसके लिए दवा व्यापारियों, नर्सिंग होम एसोसिएशन तथा आई एम ए के पदाधिकारियों के साथ बैठक कर उन्हें सदस्य बनाने के लिए जागरूक किया जाए ।

जिलाधिकारी विशाख जी. ने आज कलेक्ट्रेट सभागार में रेड क्रॉस सोसाइटी के पदाधिकारियों के साथ बैठक की अध्यक्षता करते हुए समस्त संबंधित पदाधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा कि रेड क्रॉस सोसाइटी में ज्यादा से ज्यादा लोगों को सदस्य बनाया जाए। जिसके लिए दवा व्यापारियों, नर्सिंग होम एसोसिएशन तथा आई एम ए के पदाधिकारियों के साथ बैठक कर उन्हें सदस्य बनाने के लिए जागरूक किया जाए ।

उन्होंने कहा कि रेड क्रॉस सोसाइटी द्वारा रक्तदान शिविरों का आयोजन किया जाता रहता है। उन्होंने कहा कि शहर के बीच में एक मॉर्डन डेडीकेटेड ब्लड बैंक एवं हेल्थ एटीएम की स्थापना का प्रस्ताव बनाने के लिए निर्देशित किया। जिसमें नार्मल खर्च पर तत्काल जांच कराने की सुविधा के साथ यह हेल्थ एटीएम कार्य करेगा । बैठक में रेड क्रॉस सोसाइटी के सदस्य उपस्थित रहे।

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शिक्षक दिवस के परिप्रेक्ष्य में 5 दिवसीय शिक्षक पर्व का शुभारंभ

कानपुर 6 सितंबर भारतीय स्वरूप संवाददाता, एस. एन. सेन बी. वी. पी. जी. कॉलेज कानपुर में उत्तर प्रदेश शासन के निर्देशानुसार शिक्षक दिवस के परिप्रेक्ष्य में दिनांक 5 सितंबर 2022 से 9 सितंबर 2022 तक मनाए जाने वाले शिक्षक पर्व के प्रथम दिवस का शुभारंभ आज के कार्यक्रम की अध्यक्षा एवम् प्राचार्या डॉ. सुमन, प्रभारी डॉ. निशी प्रकाश, शिक्षक पर्व की प्रभारी डॉ. रेखा चौबे, पूर्व प्राचार्या डॉ. निशा अग्रवाल एवम् कार्यक्रम संयोजिका डॉ. रचना निगम ने मां सरस्वती की प्रतिमा के सम्मुख दीप प्रज्वलन और माल्यार्पण कर किया। प्रसार प्रभारी डा प्रीति सिंह ने जानकारी देते हुए बताया अथिति स्वागत की परंपरा का निर्वहन करते हुए डॉ. निशी प्रकाश ने स्वागत उद्बोधन दिया एवम् डॉ. रेखा चौबे ने शिक्षक पर्व की महत्ता पर प्रकाश डाला। डॉ. सुमन ने अपनी ओजस्वी वाणी से सभागार में उपस्थित शिक्षकों तथा छात्राओं को लाभान्वित किया। उन्होंने तकनीकी के महत्त्व को नई शिक्षा नीति से जोड़ कर उसकी महती आवश्यकता को उल्लेखित किया। पंचदिवसीय पर्व की श्रृंखला में आज कानपुर विद्यामंदिर से आमंत्रित समाजशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. पूर्णिमा शुक्ला ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति में परिकल्पित “युवाओं के व्यक्तित्व विकास में शिक्षकों का योगदान” विषय पर ज्ञानवर्धक व्याख्यान दिया। संगीत विभाग की छात्राओं द्वारा गुरु वंदना की मोहक प्रस्तुति ने वातावरण को संगीतमय कर दिया। प्राचार्या डॉ. सुमन ने सभी संकाय शिक्षकों को स्मृति चिन्ह प्रदान कर उनका अभिनंदन किया। कार्यक्रम श्रृंखला में अगली कड़ी के रूप में छात्राओं हेतु आशुवाचन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया जिसमें भूमिका सिंह ने प्रथम स्थान, अस्मिता रावत ने द्वितीय स्थान, जायना ने तृतीय स्थान तथा अमरीन ने सांत्वना पुरुस्कार प्राप्त किया। कार्यक्रम के अंत में प्राचार्या डॉ. सुमन ने अथिति वक्ता डॉ. पूर्णिमा शुक्ला, महाविद्यालय एन. सी. सी. प्रभारी कैप्टन ममता अग्रवाल, एन. एस. एस. प्रभारी डॉ. चित्रा सिंह तोमर तथा रेंजर्स प्रभारी डॉ. प्रीति पांडे को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया। डॉ. मीनाक्षी व्यास ने कार्यक्रम का समापन प्रभावशाली धन्यवाद ज्ञापित कर के दिया। कार्यक्रम का संचालन श्रीमती ऋचा सिंह एवम् श्रीमती कोमल सरोज के द्वारा संयुक्त रूप से किया गया। इस अवसर पर महाविद्यालय परिवार ने सक्रिय भूमिका का निर्वहन किया।

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सह पाठयक्रम समिति एवं साहित्यिक गतिविधि क्लब, क्राइस्ट चर्च कॉलेज, कानपुर के संयुक्त तत्वाधान में शिक्षक दिवस के अवसर पर लघु कार्यक्रम आयोजित

कानपुर 6 सितंबर भारतीय स्वरूप संवाददाता, सह पाठयक्रम समिति एवं साहित्यिक गतिविधि क्लब, क्राइस्ट चर्च कॉलेज, कानपुर ने संयुक्त रूप से शिक्षक दिवस के अवसर पर एक लघु कार्यक्रम का आयोजन किया। इस अवसर को चिह्नित करने के लिए, कॉलेज हॉल का नाम भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के नाम पर रखा गया था, जिन्होंने 7 जनवरी, 1961 को सभागार का उद्घाटन किया था। सभागार उन्हें समर्पित था और इसे “राधाकृष्णन सभागार” के रूप में जाना जाएगा।

कार्यक्रम की शुरुआत सभागार में रिबन काटने के साथ हुई, इसके बाद दीप प्रज्ज्वलित किया गया और डॉ राधाकृष्णन की तस्वीर पर माल्यार्पण किया गया। इतिहास विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. संजय सक्सेना ने कॉलेज के संकाय सदस्यों और छात्रों का स्वागत किया. इस अवसर का विषयगत परिचय प्रो. डी.सी. श्रीवास्तव, प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, दर्शनशास्त्र द्वारा दिया गया। उन्होंने एक दार्शनिक-लेखक और भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन की रूपरेखा को रेखांकित किया, जिनकी जयंती (5 सितंबर) को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान अनुकरणीय है। शिक्षक दिवस मनाने की परंपरा 1962 में देश के पूर्व राष्ट्रपति और सभी शिक्षकों को सम्मानित करने के लिए शुरू हुई थी। कॉलेज सचिव गवर्निंग बॉडी, प्रिंसिपल, प्रो. जोसेफ डैनियल ने डॉ राधाकृष्णन के जीवन की सामयिक प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला और जोर देकर कहा कि शिक्षकों को ऐसे मनुष्यों को ढालने पर ध्यान देना चाहिए जो जीवन की प्रतिकूलताओं का सामना कर सकें और देश के जिम्मेदार नागरिक बन सकें। बीएससी की छात्रा स्वीकृति सिंह ने गुरु वंदना की और बीकॉम की छात्रा स्तुति एंजेल ने एक सुंदर गीत से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। धन्यवाद प्रस्ताव हिन्दी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर अवधेश मिश्र ने प्रदान किया। कार्यक्रम का संचालन बीए के छात्र वेदांत मिश्रा ने किया। इस अवसर पर आयोजन समिति के सदस्यों सहित समस्त प्राध्यापक एवं महाविद्यालय के छात्र-छात्राएं उपस्थित थे।

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शिक्षकों को बारंबार नमन

शिक्षकों को मेरा नमन बार बार,

कराते वो अज्ञानता के सागर को पार।!
ज्ञान के चक्षुओं को है वो खोलते
अपने समृद्ध बोलो से कानों में अमृत घोलते।
आदर्शो की हैं वो जीती जागती मिसाल,
हर समस्या से बचाते बन हमारी ढाल।

कोरोना काल में भी उन्होंने हमें संभाला,
इतनी बड़ी जटिलताओं का भी हल निकाला।
निस्वार्थ भाव से वो हमे पढ़ते,
सफलता के पथ पर हमे बढ़ाते।
गुरु के आशीस में है इतना बल और मान,
कि चंद्रगुप्त भी बन सकता है सुलतान।
सफलता के पथ पर करते मार्गदर्शन,
उनके रूप में होते साक्षात प्रभु के दर्शन।
शिक्षकों को नमन मेरा बार बार,
कराते वो अज्ञानता के सागर को पार।!!
शौर्य मोहन
12 अ
वीरेन्द्र स्वरूप एजुकेशन सेंटर,श्याम नगर ,कानपुर

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एक ख्वाब से मुलाकात

ज की रात भारी थी शिफ़ा पर।शिफ़ा कभी करवट इधर ले रही थी कभी उधर।नींद का कोई नामों निशान नही था।आज बरसों के बाद मानवी की पार्टी मे उसने कबीर को देखा जो अपनी पत्नी के साथ था।जैसे ही शिफ़ा पार्टी मे पहुँची तो वो पार्टी से जा रहा था सिर्फ़ आँखे मिली और दोनो की धड़कनें जैसे रूक सी गई।बरसों बाद यू आमना सामना हुआ तो भरी आँखों से इक दूजे को देखते रह गए और बात भी नही हुई।आज शिफ़ा इस उदासी का कारण समझ नहीं पा रही थी।सोच रही थी ,आज कंयू बेचैन है वो।क्यों हलचल सी है उसके मन में।मगर कुछ बातों का कोई जवाब नहीं होता।शिफ़ा ने उठ कर खिड़की बंद कर दी।आज बाहर बिजली खूब गरज कर चमक रही थी और तेज बारिश की बौछारें खिड़कियों पर ज़ोर ज़ोर से दस्तक दे रही थी,ठीक उसके दिल की तरह ,जहां पुरानी यादें ज़ोरों से दस्तक देने को आतुर हो रही थी।बहुत कोशिश कर रही थी पुरानी यादो की भीड़ मे न जाये ,मगर हर कोशिश आज जैसे नाकाम हो रही थी।उसे याद आया कि वो कैसे कबीर को और कबीर उसे ,छत से देखा करते थे।कैसे वो दोनों इक दूजे को चाहते थे।कबीर उस के घर के पास ही रहता था।घर मे आना जाना भी था मगर दोनों ही कभी कुछ कह नही पायें।मगर अकसर वो कबीर को कालेज से आते वक़्त अपनी बस मे देखा करती, मगर कभी हिम्मत नही हुई कि दोनों बात करे।अक्सर कोई मंचला लड़का अगर शिफ़ा को तंग करने पीछे पीछे आ रहा होता और फिर कैसे कबीर बस से उतर कर शिफ़ा के पास पास चलना शुरू कर देता कि ताकि वो सही सलामत घर पहुँच जाये,और किस तरह उसे सुरक्षित होने का अहसास करवा दिया करता। इक ऐसा ही रिश्ता था जो बहुत गहरा तो था मगर ख़ामोश सा।जैसे तैसे सोचते सोचते शिफ़ा की आँख लग गई।सुबह रात न सोने की वजह से सिर भारी सा था।खिड़की के पास बैठी शिफ़ा, चाय पीते पीते सामने पहाड़ों को निहार रही थी।रात बारिश की वजह से पेड़ों से भरे पहाड़ और भी सुन्दर दिख रहे थे।इक सौंधी सौंधी सी महक पूरे वातावरण को महका रही थी,मगर सोच फिर कबीर से जा जुड़ी।सोचने लगी !
कैसे कालेज ख़त्म होते ही जल्दी ही उसकी शादी शुभम से हो गई और वो शुभम के साथ इन शिमला की पहाड़ियों में आ कर बस गई ।शुभम उसका पति उसे बहुत प्यार करता था।ख़ुश थी अपनी ज़िंदगी में ,शिफा ने शुभम को उठाया और चाय दे कर कहा! जल्दी उठ जायें,आज आप की मीटिंग भी है।शुभम जल्दी ही तैयार हो कर आफ़िस चला गया।शिफ़ा को पता ही नहीं चला कि कब से उसका मोबाइल फ़ोन बज रहा था।जब देखा तो कबीर का फ़ोन था,जैसे इन्तज़ार ही कर रही थी जब कि वो अच्छे से जानती भी थी कि कबीर के पास उसका फ़ोन नम्बर नही है।शिफ़ा ने धड़कते दिल से फ़ोन उठाया उधर कबीर ही था।कबीर की आवाज़ आज बरसों बाद सुन रही थी।
हैलो !हाय !से आगे बात बढ़ ही नही रही थी।तब शिफ़ा ने पूछा !तुम्हें मेरा नम्बर कहाँ से मिला।कबीर ने बताया कल तुम्हें देखा ,तो रहा नहीं गया और मैंने तुम्हारा नम्बर तुम्हारी सहेली मानवी से ले लिया।कबीर बोलता जा रहा था, सवाल पर सवाल करता जा रहा था और फिर शिफ़ा से पूछा ?तुम्हारे शहर में हूँ ,क्या आज दोपहर को मेरे साथ काफ़ी पी सकती हो।शिफ़ा को खुद भी ये अहसास नहीं हुआ कि कैसे,उसने कितनी सहजता से कबीर को मिलने के लिए हाँ कह दी।शिफ़ा फ़्री भी थी तो सोचा चली जाती
हूँ।झट से तैयार हुई और कैफ़े में पहुँच गई।शिफ़ा को आते देख कबीर की धड़कन बहुत तेज हो रही थी।बरसों बाद रूबरू हो रहे थे दोनों।शिफ़ा को देख कर उसे वही बचपन वाली शिफ़ा दिखाई दी।सुन्दर शान्त और साडी में लिपटी हुई।शिफ़ा की सादगी पर तो हमेशा से मरता था कबीर।आज भी जैसे उसके सादेपन ने कबीर को दिवाना बना दिया।शिफ़ा को बस देखता रह गया ,तो शिफ़ा भी थोड़ा झेंप सी गई।कबीर कहने लगा तुम बिलकुल नहीं बदली ,ठीक वैसी ही हो ,जैसे कालेज के दिनों में थी।शिफ़ा ने बड़ी हिम्मत करके कबीर की आँखों में देखा।कबीर की बड़ी बड़ी आँखें ,ये वही आँखे थी जो शिफ़ा को अक्सर बेचैन कर दिया करती थी कभी।कितनी दफ़ा शिफ़ा ने कबीर की आँखों को काग़ज़ पर पेंसिल से बना डाला था।देख रही थी, कुछ भी तो नहीं बदला।आज भी कबीर की आँखों में वही कशिश महसूस कर रही है।आज भी कबीर को देख कर उसका दिल ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा है।कुछ पल दोनों बेसुध से ,ख़ामोशी से इक दूजे को देखते रहे।समझ नहीं आ रहा था।कहाँ से बात शुरू करें क्योंकि कहने को बहुत कुछ था मगर, न तो पहले से हालात थे ,न ही पहले सा वक़्त।
फिर कबीर ने ही ख़ामोशी को तोड़ते हुए शिफ़ा से पूछा ?शिफ़ा !क्या पियोगी चाय या काफ़ी? शिफ़ा ने कहा ! काफ़ी ही ठीक रहेगी।आज ठण्ड भी बहुत है और शिफ़ा खुद में सिमटती हुई कबीर के पास बैठ गई।कबीर बोला ! शिफ़ा मैं आज इतना ख़ुश हूँ ,शायद पहले कभी नहीं हुआ मगर इक तुम्हारी शिकायत तुमसे ही करनी है ,वो ये ,तुमने शादी करके मुझे कितना पराया कर दिया।न ही कोई वजह बताई बस मुझे कुछ कहे बग़ैर ही शादी कर ली तुमने।तुम्हारा कभी मन नहीं हुआ मिलने को ?कभी याद नहीं आई मेरी ?शिफ़ा हम दोनो ही इक दूजे को चाहते थे।चाहते थे न ?ये बात तुम्हें भी और मुझे भी पता है तो फिर ये क्या हुआ? कंयू तुम न कह सकी ? कंयू मैं न कह सका ? क्यूं हम आज साथ नही ?कबीर दिवानों ने की तरहां कहे जा रहा था जैसे बरसों की सब बातों का जवाब माँग रहा था शिफ़ा से।शिफ़ा ख़ामोश नीची निगाहें किये सब सुन रही थी मगर कबीर की आँखों में झांकने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी।डरती थी ,कि कहीं कबीर की आँखे उसके मन को कमजोर न कर दे।कहीं वो ख़ुद भी सारी मर्यादाएँ तोड़ कर ,कुछ ऐसा कह दे जो उसे अब कहने का अधिकार नहीं है शायद।कबीर बोलता जा रहा था तुम्हें याद है जब मैं तुम्हारे घर होली के दिन आया करता था।तुम्हारे चेहरे पर गुलाल लगाने के वक़्त कैसे मेरे दिल की धड़कन तेज हो ज़ाया करती थी ,तुम इस बात का अंदाज़ा भी नहीं लगा सकती।कबीर को शिफ़ा की ख़ामोशी जैसे खल सी रही थी।कबीर की बोलते बोलते आँखे नम हो गईं और उसका गला भर आया।इक तूफ़ान तो शिफ़ा के अन्दर भी था मगर शिफ़ा ने बहुत संजीदगी से कहा !कबीर बहुत कुछ ऐसा था जो मेरी ख़ामोशी के कारण थे।मैं अपने माँ बाप को कोई दुख नहीं देना चाहती थी।जैसा वो चाहते थे मैंने वही किया।कबीर बोला और मेरे बारे में कंयू नही सोचा ? शिफ़ा थोड़ा गंभीरता से बोली।कबीर मैं पापा का हाथ बटाना चाहती थी उनकी ज़िम्मेदारियाँ को बाँटना चाहती थी।कबीर बोला !मुझे कह कर देखती तो सही।मुझ पर यक़ीन नहीं था क्या ?मुझ से कहती ,हम दोनों मिल कर सारी ज़िम्मेवारी बाँट लेते।फिर गंभीर हो कर कबीर ने शिफ़ा के हाथ पर हाथ रख दिया।कबीर के इस स्पर्श से शिफ़ा के पूरे शरीर में इक कंपन सा हो गया।सीमाओं के बीच, लाज मे सिमटी शिफ़ा का सारा शरीर ,इतनी ठंडी में भी भीग सा गया क्योंकि आज तक उसे कबीर के स्पर्श का कोई अहसास नहीं था।सिहर सी गई थी शिफ़ा, और कबीर भी उसकी मनोदशा को उसके माथे पर आई पसीने की बूँदों से पढ़ पा रहा था।कबीर ने पूछा ! क्या ख़ुश हो उनके फ़ैसले पर।शिफ़ा ने कहा !जब फ़ैसला ही मान लिया तो मेरे ख़ुश या न ख़ुश होने का सवाल ही पैदा न हुआ।पिता के घर ,पिता के घर की इज़्ज़त का ख़्याल रहा।अब पति के घर ,पति की इज़्ज़त का ख़्याल रखना है बस।कबीर ने पूछा और तुम्हारी अपनी ख़ुशी का क्या ?
शिफ़ा कहने लगी अपने बारे में कभी सोचा ही नहीं। ज़िम्मेदारियाँ उठाते उठाते पता ही नहीं चला, कैसे वक़्त गुज़रता गया।हाँ ये सच है कि मैंने अक्सर तुम्हें याद किया है।जब भी कभी पहले प्यार का ज़िक्र हुआ तो तुम याद आये मुझे।कुछ शादियाँ समझौता ही होती है कबीर।दो लोगों के लेने देने का सम्बन्ध मात्र ही होती है।इससे ज़्यादा कुछ नहीं।कबीर ने अचानक से इक सवाल शिफ़ा के सामने रख दिया कि क्या वो अब भी उसे वैसे ही चाहती है?शिफ़ा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई और बोली बेशक !समाज में रहने के लिए उसके जिस्म को तो आगे बढ़ना पड़ा ,मगर उसकी रूह आगे कभी नहीं बढ पाई,वहीं रह गई तुम्हारे आसपास और हाँ कबीर ,किसी को चाहने के लिये सारी उम्र उस इन्सान के साथ रहना ज़रूरी तो नहीं।तुम्हारी जगह वहीं है जहां थी।शिफ़ा बहुत चाहती थी कि दिल की हर बात उससे कह दे ,मगर न कभी पहले कह सकी, न अब।फिर इकदम से उठ खड़ी हुई और
बोली !अच्छा अब मैं चलती हूँ ।चलने को कह तो रही थी मगर खुद के अल्फ़ाज़ जैसे साथ नहीं दे रहे थे।अभी और वक़्त कबीर के साथ बिताना चाह रही थी।मन ही मन सोच रही थी कि कबीर उसे रोक ले।मगर होंठ ख़ामोश थे।जाने से पहले दोनों ने इक दूजे को देखा।कबीर ने धीरे से कहा ! शिफ़ा कल मैं जा रहा हूँ और तुम्हें बहुत याद करूँगा।भूल तो मैं ,तुम्हें कभी पाया ही नही।अगर तुम कल न दिखती ,न हम मिलते तो अच्छा ही होता शायद ,और फिर इक लम्बी गहरी साँस ली कबीर ने।जो सीधा शिफ़ा की रूह के आरपार हो गई थी जैसे।शिफ़ा ने बड़ी संजीदगी से कबीर से कहा !अगर तुम्हारी और मेरी चाहत में पाकीज़गी है तो यकीनन हम अगले जन्म में ज़रूर मिलेंगे।मैं सब्र से तुम्हारा इन्तज़ार करूँगी तब तक।अच्छा अब मैं जाऊँ कबीर?ऐसा कह कर शायद शिफ़ा चाह रही थी कि कबीर उसे जाने की इजाज़त खुद दे दे तो शायद हल्के मन से वो वहाँ से जा सके। कबीर चाहते हुए भी उसे न रोक सका और सोच रहा कि मैं शिफ़ा को कभी रोक कंयू नहीं पाया।न पहले ,न आज ,और सोच रहा था किस हक़ से रोकूँ शिफ़ा को।इक ठण्डी आह लिए ,ख़ामोश सूनी निगाहों से अपने प्यार को बस जाते हुए देखता रहा। दोस्तों लोग प्यार करते हैं बिछड़ भी जाते है और कभी दोबारा ज़िन्दगी अगर उन्हें मिला भी देती है तो शिफ़ा और कबीर की तरह संयम में नहीं रह पाते।”संयम “जो बहुत ज़रूरी भी है “किसी को प्यार करना और फिर उसे पा लेना तो “आम सी बात है”अगर कुछ ख़ास है तो वो ये ,खुवाईशे को समेट लेना और रिश्ते को मर्यादाओं में रह कर स्वीकार करना।अतीत की भी अपनी जगह और अपना वक़्त होता है कुछ रिश्ते सिर्फ़ ख़्वाब ही रहते है हक़ीक़त नहीं मगर ये भी सच है कि कुछ ख़्वाब ,हक़ीक़त से भी ज़्यादा दिल के क़रीब होते है इसमें कोई शक है भी नहीं।

स्मिता 

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हिंदी का महत्व

एक भाषा के रूप में हिंदी भारत की पहचान है बल्कि यह हमारे जीवन मूल्य व संस्कृति एवं संस्कारों की अच्छी संवाहक संप्रेषण और परिचायक भी है। बहुत सरल और सुगम भाषा होने के साथ ही विश्व की संभवत सबसे वैज्ञानिक भाषा है जिसे दुनिया भर में बोलने और चाहने वाले लोग बड़ी संख्या में मौजूद है। देश में तकनीकी और आर्थिक समृद्धि के साथ साथ अंग्रेजी पूरे देश पर हावी होती जा रही है। हिंदी देश की राजभाषा होने के बावजूद हर जगह अंग्रेजी का वर्चस्व कायम है। हिंदी जानते हुए भी लोग हिंदी में बोलने, पढ़ने या काम करने में हिचकने लगे हैं। हिंदी के विकास के लिए खासतौर से राजभाषा विभाग का गठन किया गया। इस विभाग द्वारा प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस समारोह का आयोजन किया जाता है। 14 सितंबर 1949 का दिन स्वतंत्र भारत के इतिहास बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था। इस निर्णय को महत्व देने के लिए और हिंदी के उपयोग को प्रचलित करने के लिए 1953 के उपरांत हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए कहा था और काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी।
जब राजभाषा हिंदी रूप में चुनी गई और लागू की गई तो गैर हिंदी भाषी राज्य के लोगों के विरोध के स्वर उठने लगे जिसके कारण अंग्रेजी भाषा को भी राजभाषा का दर्जा देना पड़ा। यही वजह है कि हिंदी में अंग्रेजी भाषा का प्रभाव पड़ने लगा। अंग्रेजी भाषा के अलावा किसी दूसरे भाषा की पढ़ाई को समय की बर्बादी समझा जाने लगा। हिंदी भाषी घरों में बच्चे हिंदी बोलने से कतराने लगे या अशुद्ध बोलने लगे। तब कुछ विवेकी अभिभावकों के समुदाय को एहसास होने लगा कि घर परिवार में नई पीढ़ियों के जुबान से मातृभाषा खत्म होने लगी है इसीलिए हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए राजभाषा सप्ताह मनाया जाता है। हिंदी भाषा केबल भाषा नहीं है वरन संस्कृति, परंपरा और मूल्य भी होती है और यह संस्कृति और परंपराओं का मूल्य तब तक सुरक्षित है जब तक भाषा सुरक्षित है। संविधान में भारत को राज्यों का संघ माना गया इसीलिए राजभाषा की जरूरत महसूस हुई।
आज तो यह देखा जा रहा है कि हिंदी पढ़ाने वाले शिक्षक अपने बच्चे को ही हिंदी नहीं पढ़ाते। हिंदी के प्रति हमारी प्रतिबद्धता अब दिखाई नहीं देती । आज जरूरी है कि आप हिंदी खुद बोले और अपने बच्चों को अधिक से अधिक अपनी भाषा सिखाए। आज स्कूल और कॉलेज में हिंदी को बस प्राथमिक तौर पर महत्व दिया जाता है। अधिकतर स्कूल भी इंग्लिश मीडियम वाले है। शिक्षाओं के विकल्प भाषा के महत्व को कम कर रहे हैं। आज हिंदी को महत्व न देकर अन्य विदेशी भाषाओं को सीखने के लिए ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। आजकल माता पिता भी अपने स्टेटस सिंबल बनाए रखने के लिए हिंदी को नजरअंदाज कर रहे है। उन्हें इंग्लिश बोलते बच्चे ज्यादा गौरवान्वित लगते हैं।
किसी भी भाषा का विकास उसके साहित्य पर निर्भर करता है आज के तकनीकी युग में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में भी हिंदी में काम को बढ़ावा देना चाहिए ताकि देश की प्रगति में ग्रामीण जनसंख्या की भागीदारी सुनिश्चित हो सके। इसके लिए अनिवार्य है और अन्य भारतीय भाषाओं में तकनीकी ज्ञान से संबंधित साहित्य का अनुवाद किया जाए।
यूं तो पूरे देश की भाषा हिंदी है। हम साधारण बोलचाल की भाषा में हिंदी भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं। जनमानस को जोड़ने वाली भाषा का प्रभाव समाज में आजकल कम होते जा रहा है। भाषा वही जीवित रहती है जिसका प्रयोग जनता करती है। भारत में लोगों के बीच संवाद का सबसे बेहतर माध्यम हिंदी है इसके लिए इसको एक दूसरे में प्रचारित करना चाहिए। आज दुनिया भर में बोली जाने वाली सभी भाषाओं में हिंदी तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। वर्ल्ड लैंग्वेज डेटाबेस के 22वें संस्करण इथोनोलॉज मैं बताया गया है कि दुनिया भर की 20 सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में 6 भारतीय भाषाएं हैं जिनमें हिंदी तीसरे स्थान पर है। अपनी मातृभाषा को सम्मान दें पर इसका महत्त्व बनाए रखने में अपना योगदान दें।* प्रियंका वर्मा महेश्वरी 

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दिल बड़ा रखिए जनाब कौन बेमतलब आता है किसी के यहां आजकल

कोई है वहाँ ? ज़रा फ़ोन तो उठाओ।फ़ोन की घंटी कब से बजे जा रही है।रिया ने बाथरूम से अपने पति रोहन को आवाज़ देते हुये कहा।रोहन ने झट से फ़ोन उठाया तो उधर रोहन की बहन सलोनी थी जो कह रही थी वो अगले हफ़्ते रोहन के शहर किसी आफ़िस के काम से आ रही है एक हफ़्ते के लिये, और उसी के यहाँ ठहरेगी।रोहन ने बात करके फ़ोन रख दिया, मगर अब सोच रहा था कि कैसे कहे रिया से कि सलोनी आ रही है।वो रिया को जानता था।इतने मे रिया बाथरूम से बाहर आ गई और पूछा किसका फ़ोन था ?रोहन ने कहा ! सलोनी कुछ काम के सिलसिले से यहाँ आ रही है और हमारे साथ दो चार दिन रहेगी ।बस फिर क्या था ,रिया ने कहा अगले हफ़्ते मेरी दो किटी पार्टी है और मै काम पर भी जाऊँगी ,मै नही सँभाल सकती किसी मेहमान को।कह दो सलोनी से कि तुमहारे बड़े भाई के यहाँ ठहर जाये।वहाँ भी तो जा सकती हैं रोहन कहने लगा !सलोनी अपने किसी आफ़िस के काम से आ रही है और उसका आफ़िस हमारे घर के पास है,इसीलिए हमारे यहाँ ठहरेगी।अब रोहन सलोनी को हाँ कर चुका था।रोहन चुपचाप उठा अपने आफ़िस चला गया मगर मन पर बोझ था।सोच रहा था ,अगर रिया की बहन का फ़ोन आया होता तो क्या रिया तब भी यूँ कहती और सोचने लगा जब कोई रिया के मायके से आता है तो वो कितना स्वागत करता है मगर रिया कयूं ऐसा करती है।मेरी माँ बाप ,बहन भाई ,जब भी कोई आता है तो उसका व्यावहार ऐसा कयूं होता है।अगर मैं रिया की हर बात का मान रखता हूँ तो रिया कयूं नही रख पाती।कंयू ऐसा बर्ताव करती है।आज काम पर मन नही लगा ,क्यूँकि रोहन ये पहले भी देख चुका था।शाम को सुनिल के घर जाने का प्रोग्राम था।सुनिल जो रोहन का बचपन का दोस्त था मगर भाई जैसा।सुनिल की दादी की 70 वीं सालगिरह थी।पार्टी सादी सी थी मगर वहाँ अपनापन और प्यार बहुत था।रोहन और रिया दादी के पास बैठे तो रोहन ने दादी को बताया कि उसकी बहन सलोनी आ रही है पूना से।दादी बहुत ख़ुश हुई और कहने लगी।तीन सालों के बाद आ रही है यहाँ, तेरे पापा के गुज़र जाने के बाद तुम दोनों भाई ही तो है उसके।तुमहारे पास नहीं आयेगी तो किस के पास जायेगी,मगर रिया ने तुनक कर कहा !दादी मै काम पर जाती हूँ मेरे घर कोई आये ,मुझे संभालना बहुत मुश्किल लगता है।दादी तो फिर दादी थी,बडे प्यार से रिया का हाथ पकड लिया और सिर पर हाथ फेर कर कहने लगी।
बिटिया,हम कितना परिवार अकेले सँभाल लिया करते थे बिना किसी नौकर के।आजकल तुम लोग इक मेहमान भी आ जाये तो तुम कैसा व्यावहार करने लगते हो ,अभी तो तुमहारे पास काम करने वाले नौकर चाकर भी रोहन ने लगा रखे है।बिटिया ज़रा दिल को बड़ा रखा करो।अगर तुम अपने पति का प्यार या विश्वास पाना चाहती हो तो उसकी भावनाओं का सन्मान करना सीखो ,फिर दादी ने अपने गाँव के इक पति पत्नी की बात बताई।कहने लगी कि हमारे गाँव मे इक जवान पति पत्नी रहते थे ।दोनों ही बहुत ही छोटे दिल के मालिक थे।उनके घर अगर कोई मेहमान आता तो पत्नी के माथे पर बल पड़ जाते और बहाने बहाने से ,साथ वाले पड़ोसी के घर से आटा माँग कर ले आती।कोई भिखारी भी उनके यहाँ आता तब भी वो दोनों ,साथ वाले पड़ोसी के घर भेज दिया करते और कहते कि पड़ोसी के घर चले जाओ यहाँ से कुछ नही मिलेगा।आये दिन अपने पड़ोसी के घर से कुछ न कुछ मागंते रहते।इक रोज बहुत ही गरीब भिखारी उनके दरवाज़े पर आया तो पहले की तरह उन्होंने उसे भी साथ वाले घर में भेज दिया।उस रात दोनों जब सो रहे थे तो पत्नी ने सपना देखा कि जिस गुरू को वो मानते है वो गुरू उनके आटा के डिब्बे मे से आटा निकाल कर पड़ोसी की रसोई में जा कर उनके आटे का डिब्बे में डाल रहे है। सुबह उठ कर पत्नी ने पति को ये बात बताई ।
दोनो घबरा गये ।सोचने लगे ,गुरू हमारे अन्न को बढ़ाने की बजाये अन्न को कम क्यों कर रहे थे।उन दोनों को ये सपना बैचेन कर रहा था।अगले रोज सीधा गुरू के पास पहुँच गये और सारी बात ,जो पत्नी ने सपने मे देखी थी ,गुरु जी से कह डाली ।गुरू जी हंसने लगे !कहने लगे अब तुमहारे यहाँ कोई मेहमान या कोई कुछ माँगने के लिए आता है तो तुम उसे साथ वाले घर मे भेज देती हो जबकि उनका दाना पानी तो तुमहारे घर मे लिखा था।बस मै तो वही अन्न,जो उनके हिस्से का अन्न होता है तुमहारे घर से निकाल कर पड़ोसी के यहाँ पहुँचा के आता हूँ।जब रिया ने बात सुनी तो सोच मे पड़ गई।बात तो सही थी कोई किसी के यहाँ ऐसे ही नहीं जाता ,दाना पानी खींच कर ले आता है ये बात तो उसने भी सुन रखी थी।अपनी सोच पर शर्म सी महसूस करने लगी।दादी कहती जा रही थी रिया जब तुम अपने भाई के यहाँ जाती हो तो वो तुम्हें कितना सन्मान देते है, अगर तुम्हारी भाभी भी ऐसा बर्ताव करे,जैसा तुम सलोनी के आने पर कर रही हो तो कैसा लगेगा तुम्हें।
दोस्तों!आज हम सब भी तो ,यही कर रहे हैं ।दिल को बड़ा रखने की जगह मेहमानों को मुसीबत समझने लगे हैं आज कोई घर आ जाये,तो अपने हाथो से खाना बना कर खिलाना तो बहुत दूर की बात हो गई है बस आसान रास्ता अपना लेते है कि चलो किसी रेस्टोरेन्ट मे खाना खिला देते है।मेहमान कोई भी हो ,पति का या पत्नी की तरफ़ से ,खुले दिल से स्वागत करे।यू तो हम कह रहे हैं समाज में प्यार बढ़ाये तो क्यों न शुरूवात अपने से ही करें।
यूँ भी दोस्तों !
“ कौन किसी के यहाँ आता जाता है आजकल,ये तो परिंदों की मासूमियत भरी मेहरबानी है ,जो हमारे बगीचो मे कभी भी आया ज़ाया करते है “
-लेखिका स्मिता ✍️

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गुजरा वक्त

बचपन कहूं या गुजरा वक्त मगर यह सच है कि वक्त बहुत तेजी के साथ बदल गया है। बीते वक्त की आज से तुलना करती हूं तो लगता है जैसे पता नहीं हमारा वक्त कौन सा वक्त था। आज हम इतना ज्यादा उपभोक्तावाद हो गए हैं कि छोटी छोटी चीजों का महत्व खत्म हो गया है। उनकी उपयोगिता घट गई है। छोटी छोटी सी चीजों में भी खुश हो जाने वाला बचपन आज बड़ी बड़ी चीजों में भी बहुत सहज दिखाई देता है।

हमारे जीवन में छोटी खुशियां और चीजों का मूल्य समझा और समझाया जाता था। एक बात और है कि आज के इस तकनीकी युग में विकल्प बहुत है। मुझे याद आता है कि यदि हमारी हवाई चप्पल अगर कहीं से टूट जाती थी तो सिलवाई जाती थी और उस चप्पल का इस्तेमाल हम तब तक करते थे जब तक वो बिल्कुल फेंकने लायक ना हो जाये। सिर्फ चप्पल ही क्यों स्कूल बैग फट जाते थे तो सिलवा कर इस्तेमाल में लाए जाते थे, आज की तरह नहीं कि फेंको और दूसरा ले लो। कपड़े भी जरा से फट गए तो सिल कर काम चला लिया जाता था, नए कपड़ों से अलमारियां नहीं भर ली जाती थी, पांच सात जोड़ी कपड़े बहुत होते थे। किताबों पर जिल्द ब्राउन पेपर की नहीं बल्कि अखबारों की जिल्द से भी काम चल जाता था।
हमारा बचपन खेल कूद और पढ़ाई में ही बीता। रसोई में क्या बन रहा है कभी ध्यान ही नहीं गया। मां जो भी बना देती थी वही खाना रहता था। हमारे लिए कोई ऑप्शन नहीं थे लेकिन आज अगर घर में तीन लोग हैं तो तीन तरह की रसोई बन जाती है, अनाज बर्बाद होता है सो अलग। पढ़ाई के मामले में भी अगर किताबें भाई बहन के काम आती है तो संभाल कर रख ली जाती थी नहीं तो किसी जरूरतमंद को दे दी जाती थी, रद्दी में नहीं फेंकी जाती थी। ऐसी ही न जाने कितनी बातें हैं दूरदर्शन या डी डी मेट्रो के अलावा हमारे लिए टीवी पर दुनिया भर के चैनल नहीं थे। रविवार का इंतजार रहता था और एक फिल्म देखना, कार्टून देखना या चंद्रकांता सीरियल, रामायण, महाभारत, टॉम एंड जेरी और चित्रहार जैसे कार्यक्रमों का इंतजार रहता था। आज की तरह बटन दबाकर पाज कर दिया और कल देखेंगे वाला सिस्टम नहीं था, उत्सुकता बनी रहती थी। वह इंतजार अब नहीं रह गया है। गाना सुनने के लिए वीडियो या टेप रिकॉर्डर थे। आज की तरह मोबाइल में सब कुछ सहूलियत से उपलब्ध नहीं था। होटल वगैरा भी किसी खास मौके पर ही जाना होता था आज की तरह वीकेंड मनाने या फिर जब मन हुआ होटल चले गए ऐसा नहीं होता था।
महसूस होता है कि वक्त बहुत तेजी से बदल गया है। पता नहीं दुनिया पहले छोटी थी अब छोटी हो गई है। बहुत फर्क आ गया है बच्चे हिंदी नहीं पढ़ना जानते, वास्तविक जीवन में कम तकनीकी जीवन में ज्यादा जीते हैं , मशीनी गति से काम करते न जाने कौन सा  सुख तलाश करते हैं। हमें पैसे की वैल्यू समझाई जाती थी। अब सब समय की वैल्यू देखते हैं। हमें महंगी और सस्ती चीजों का फर्क समझाया जाता था। सिर्फ पसंद आ जाना भर ही आ जाना ही मायने नहीं रखता था समय के साथ बदलता बहुत कुछ है और बदलना भी चाहिए आज के बच्चों में परिपक्वता ज्यादा है मगर जब कभी लगता है कि बच्चे अपना बचपन, अपने संस्कार और अपने मूल्य भूलते जा रहे हैं तब दुख होता है।

प्रियंका वर्मा महेश्वरी 

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क्राइस्ट चर्च कॉलेज में आजादी का अमृत महोत्सव के अंतर्गत विभान्शु वैभव की नाट्य कार्यशाला तथा अन्य रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन

क्राइस्ट चर्च कॉलेज में विभाशु वैभव द्वारा रंगमंच कार्यशाला के साथ इंडिया@75 आजादी का अमृत महोत्सव की शुरुआत की गई। श्री वैभव एक प्रसिद्ध रंगकर्मी, लेखक, अभिनेता, निर्देशक, नाटककार हैं जो टेलीविजन और सिनेमा से बीस वर्षों से भी अधिक समय से जुड़े हैं। उनका कॉलेज में आकर छात्रों से संवाद करने की अनुमति मिलने से छात्रों में एक अलग ही जोश था.

इस नाट्य कार्यशाला का आरम्भ नाबा और समूह द्वारा वंदे मातरम के गायन के साथ दीप प्रज्ज्वलन से हुआ. प्राचार्य डॉ. जोसेफ डेनियल ने विशिष्ट अतिथि का स्वागत गुलदस्ते के साथ किया और छात्रों को संबोधित किया। श्री वैभव जी ने रंगमंच के उन्नत पहलुओं की मूल बातों पर बहुत ही ज्ञानवर्धक व्याख्यान दिया। उन्होंने अभिनय, लेखन और इसे ओटीटी, सिनेमा और टेलीविजन जैसे विभिन्न माध्यमों पर प्रस्तुत करने की कई उभरती तकनीकों और बारीकियों पर चर्चा की। छात्र उनकी उपस्थिति और विषय पर ज्ञान की गहराई से प्रभावित थे। सभी ने उत्साहपूर्वक भाग लिया और थिएटर और सिनेमा के कुछ आवश्यक कौशल सीखे।
प्रो. आशुतोष सक्सेना, डीसी श्रीवास्तव, अरविंद सिंह, शिप्रा श्रीवास्तव सहित अन्य सभी शिक्षक समुदाय उपस्थित था । डॉ. विभा दीक्षित और डॉ. मीतकमल ने इस कार्यशाला का आयोजन किया। डॉ विभा दीक्षित सांस्कृतिक समिति समन्वयक और डॉ मीत कमल मिशन शक्ति की संयोजक हैं। आयोजक मंडल में मानवी, अभिषेक, उदित, प्रीति, वैशाली, उज्जवल व अन्य छात्र शामिल थे।
इससे पहले छात्रों की महोत्सव गतिविधियों की शुरुआत India@75 पर निबंध लेखन प्रतियोगिता से हुई। कार्यक्रम में लगभग 56 छात्रों ने भाग लिया। संचालन हिना अजमत और साक्षी अग्रवाल ने किया।
आजादी का 75वां अमृत महोत्सव मनाने के लिए छात्रों और शिक्षकों में “जोश बहुत ज्यादा है”। इस विशेष अवसर को चिह्नित करने के लिए कॉलेज में 11 से 17 अगस्त तक वृक्षारोपण, समाज सेवा, तिरंगा सेल्फी, नाटक संगीत और नृत्य जैसे विभिन्न रंगारंग कार्यक्रम छात्रों के लिए छात्रों द्वारा आयोजित किए जायेंगे।

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पिया का साथ है और नैनों में अंजुरी भर सपनों की सौगात है

जिन्दगी कभी कभी नीम के पेड़ जैसी है
जरा सी धूप, जरा सी छांव की तरह है
कभी सावन के झूलों जैसी राहें हैं
कभी ऊपर कभी नीचे…. ऊंची ऊंची पेंगे
और कभी मंझधार में अटकती राह है

मेंहदी के रंग से सजी मोहब्बत
हाथों से आती सोंधी खुशबू
यूं ही इश्क़ बयां कर देती है
चूड़ी बिंदिया काजल और कंगन
ये तो यूं ही जलाती हैं

राह देखता मायका कुछ अपनों का
जहाँ बहू बेटियों की बात ही निराली है
संग सहेलियों के कुछ पल बिताने
सावन की बात ही निराली है

तीजों का त्यौहार,
भाई बहनों का प्यार
मांओं का दुलार
झूले पर खेलता बचपन
सावन की यह हरियाली बड़ी मतवाली है

पिया का साथ है और
नैनों में अंजुरी भर
सपनों की सौगात है
देखो वो आया परदेसी
कि अब मिलन की आस है

~ प्रियंका वर्मा महेश्वरी 

 

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