बचपन कहूं या गुजरा वक्त मगर यह सच है कि वक्त बहुत तेजी के साथ बदल गया है। बीते वक्त की आज से तुलना करती हूं तो लगता है जैसे पता नहीं हमारा वक्त कौन सा वक्त था। आज हम इतना ज्यादा उपभोक्तावाद हो गए हैं कि छोटी छोटी चीजों का महत्व खत्म हो गया है। उनकी उपयोगिता घट गई है। छोटी छोटी सी चीजों में भी खुश हो जाने वाला बचपन आज बड़ी बड़ी चीजों में भी बहुत सहज दिखाई देता है।
हमारे जीवन में छोटी खुशियां और चीजों का मूल्य समझा और समझाया जाता था। एक बात और है कि आज के इस तकनीकी युग में विकल्प बहुत है। मुझे याद आता है कि यदि हमारी हवाई चप्पल अगर कहीं से टूट जाती थी तो सिलवाई जाती थी और उस चप्पल का इस्तेमाल हम तब तक करते थे जब तक वो बिल्कुल फेंकने लायक ना हो जाये। सिर्फ चप्पल ही क्यों स्कूल बैग फट जाते थे तो सिलवा कर इस्तेमाल में लाए जाते थे, आज की तरह नहीं कि फेंको और दूसरा ले लो। कपड़े भी जरा से फट गए तो सिल कर काम चला लिया जाता था, नए कपड़ों से अलमारियां नहीं भर ली जाती थी, पांच सात जोड़ी कपड़े बहुत होते थे। किताबों पर जिल्द ब्राउन पेपर की नहीं बल्कि अखबारों की जिल्द से भी काम चल जाता था।
हमारा बचपन खेल कूद और पढ़ाई में ही बीता। रसोई में क्या बन रहा है कभी ध्यान ही नहीं गया। मां जो भी बना देती थी वही खाना रहता था। हमारे लिए कोई ऑप्शन नहीं थे लेकिन आज अगर घर में तीन लोग हैं तो तीन तरह की रसोई बन जाती है, अनाज बर्बाद होता है सो अलग। पढ़ाई के मामले में भी अगर किताबें भाई बहन के काम आती है तो संभाल कर रख ली जाती थी नहीं तो किसी जरूरतमंद को दे दी जाती थी, रद्दी में नहीं फेंकी जाती थी। ऐसी ही न जाने कितनी बातें हैं दूरदर्शन या डी डी मेट्रो के अलावा हमारे लिए टीवी पर दुनिया भर के चैनल नहीं थे। रविवार का इंतजार रहता था और एक फिल्म देखना, कार्टून देखना या चंद्रकांता सीरियल, रामायण, महाभारत, टॉम एंड जेरी और चित्रहार जैसे कार्यक्रमों का इंतजार रहता था। आज की तरह बटन दबाकर पाज कर दिया और कल देखेंगे वाला सिस्टम नहीं था, उत्सुकता बनी रहती थी। वह इंतजार अब नहीं रह गया है। गाना सुनने के लिए वीडियो या टेप रिकॉर्डर थे। आज की तरह मोबाइल में सब कुछ सहूलियत से उपलब्ध नहीं था। होटल वगैरा भी किसी खास मौके पर ही जाना होता था आज की तरह वीकेंड मनाने या फिर जब मन हुआ होटल चले गए ऐसा नहीं होता था।
महसूस होता है कि वक्त बहुत तेजी से बदल गया है। पता नहीं दुनिया पहले छोटी थी अब छोटी हो गई है। बहुत फर्क आ गया है बच्चे हिंदी नहीं पढ़ना जानते, वास्तविक जीवन में कम तकनीकी जीवन में ज्यादा जीते हैं , मशीनी गति से काम करते न जाने कौन सा सुख तलाश करते हैं। हमें पैसे की वैल्यू समझाई जाती थी। अब सब समय की वैल्यू देखते हैं। हमें महंगी और सस्ती चीजों का फर्क समझाया जाता था। सिर्फ पसंद आ जाना भर ही आ जाना ही मायने नहीं रखता था समय के साथ बदलता बहुत कुछ है और बदलना भी चाहिए आज के बच्चों में परिपक्वता ज्यादा है मगर जब कभी लगता है कि बच्चे अपना बचपन, अपने संस्कार और अपने मूल्य भूलते जा रहे हैं तब दुख होता है।
प्रियंका वर्मा महेश्वरी