वो सामने बैठा मुझे ही देखे जा रहा था और मैं.. आँख भी नहीं मिला पा रही थी। वो नज़र कुछ ऐसी थी कि जिसमें जिस्म की चाह नही ,कुछ और ही था।मेरे ख़याल से इससे ख़ूबसूरत इश्क़ नहीं हो सकता, जो सिर्फ़ नज़रों से ही किसी की रूह को छू लेता है ..
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सबा ने हिम्मत कर अपनी आँखें उठाई और इक लम्बी ख़ामोशी को तोड़ते हुए बोली ! अच्छा तो बासु ..अब मैं चलू।बासु बोला !आज कितने सालों के बाद अचानक से तुम मेरे सामने आ गई।बहुत बार सोचा कि तुम्हें फ़ोन करूँ ,तुम से बात करूँ।इतने अरसे के बाद तुम्हें देखा।कैसे आज तुम्हें जाने के लिए कह दूँ। सबा मैं तो हैरान हूँ कि कैसे ,तुम मुझे भुला बैठी ? बासु की बड़ी बड़ी आँखों में गहराई और बेचैनी का अहसास कर पा रही थी सबा।शोर तो सबा के सीने में भी बहुत था मगर ख़ामोश सा।जैसे सब्र करना सीख गई थी सबा।इतना भी आसान नहीं था सबा के लिए ,खुद को सहज सा दिखाना।बहुत जद्दोजहद में थी सबा।कभी अपना दुपट्टे का पल्लू संभाल रही थी तो कभी अपनी नज़रों को।नहीं चाहती थी कि बासु उसकी बेक़रारी को देख पाये।
सबा ने इक गहरी साँस भरी,जो बासु के दिल के आरपार हो गई।सबा भारी आवाज़ में बोली! बासु वक़्त सब कुछ सिखा देता है।तुम से बिछड़े तीन साल हो गये है मगर मैं तुम्हें भूल नहीं पाई बासु, और भूलती भी कंयू तुम्हें।तुम चाहत हो मेरी।ये अलग बात है कि हमारी शादी नहीं हो पाई,क्यूँकि मैं मुसलमान घर की बेटी और तुम कट्टर ब्राह्मण परिवार से थे।घरों में शान्ति रहे इसीलिए हमने अपनी खुवाईशो का गला दबा दिया।तब कोई और चारा था भी नही ,हमारे पास।है न बासु ? बासु मेरे लिए ,तुम्हें छोड़ कर जाना मुश्किल होगा, ये तो पता था मुझे। शरीर से रूह निकल कर रह गई थी तुम्हारे ही पास .. ज़ाहिर है ..दर्द होना तो लाज़मी ही था ..मगर इतना दर्द होगा वो नही पता था। काश !! मेरे अबू मान गये होते या तुम्हारे पापा।सुबक पड़ी थी सबा ,ये सब कहते कहते। बासु का दिल रो रहा था। बासु बोला ! मैं कंयू नहीं लड़ पाया सबसे? क्यू अपने फ़र्ज़ को इतनी अहमियत दी मैंने ।याद आया उसे ,कैसे उसके पापा अंबालिका की शादी की दुहाई देने लगे थे। चिल्ला चिल्ला कर कह रहे थे कि अगर तुम मुसलमान घर की लड़की ले कर आये तो तेरी बहन सारी उम्र कुँवारी बैठी रहेगी।सिहर उठा था बासु। सबा का हाथ पकड़ कर बोला। कुछ चाहते ऐसी होती है सबा।जिसमें इन्सान ,इश्क़ में दर्द तो सह लेता है मगर इश्क़ करना कभी नहीं छोड़ पाता ..
इश्क़ मे रहना और फिर इश्क़ की इबादत करना ….हर किसी के हिस्से में कहाँ आ पाती हैं हर जगह हर पल तुम्हारी ये कमी का अहसास ..क्या मुझे ख़ुशी दे पायेगा कभी। तुम ने ही तो कहा था कि हम बड़ों का दिल नहीं दुखायेंगे।तुम्हारी ही दी गई क़सम को निभा रहा हूँ मैं..मगर जीना अब इक सजा सा लगता है तुम्हारा वजूद सकून है मेरा ! सबा ..यूं मिल कर बिछड़ना ,मुक़द्दर में था या हमने ये सजा तय कर ली खुद अपने ही लिये..ये बात मैं समझ नहीं पाया, बस यही बात समझ में आई कि मुझे प्यार है तुमसे .. आज भी.. बासु बोलता जा रहा था। सबा ! कभी कभी मैं सोचता हूँ कि तुम और मैं , हम दोनों ही..बस सब का क़र्ज़ उतार रहे है। बाँट ही तो रहे हैं सभी को ..सभी का हक़। इक रह जायेगा तुम्हारे सर … या मेरे सर ..बस ! “हमारे इश्क़ का क़र्ज़ .. हमारी ख़ामोशियाँ…. तुम्हारा और मेरा इन्तज़ार .. कतरा कतरा आँखों से गिरते आँसुओं का बोझ कैसे उतार पायेंगे ,इक दूजे का ये क़र्ज़.. मेरी जागती रातों का हिसाब .. मेरे सवाल और तुम्हारे जवाब यही दफ़्न हो जायेगे,हमारे ही अन्दर।कितना अधूरा सा मैं ,कितनी अधूरी सी तुम..ये ख़ालीपन कभी नहीं भर पायेगा। सबा गंभीर हो कर बोली! बासु ..शायद ..वक़्त हमे इक दूजे के बिना रहना सिखा दे। बासु सबा की इस बात पर जैसे तड़प सा गया। बोला! क्या तुम मुझे भूल पाओगी सबा। हमारा प्यार कभी भी वक़्त के साथ धुंधला नहीं हो सकता।मरते दम तक तुम ही रहोगी मेरे दिल में।अब तो बस जीना ही है, मोहब्बत तो मैं ,कर चुका तुम से। अब तो सिर्फ़ बस फ़र्ज़ निभाने बाकि है। सबा !
मैं भी इक वादा करता हूँ आज के बाद मैं तुम्हें कभी नहीं मिलूँगा। न ही कभी तुम्हें देखूँगा चाहे तुम मेरे पास से भी गुज़र जाओ।
तुम से न मिलने से,बात न करने से बेक़रारी तो रहेगी, मगर मिलने के बाद, तुम से बात करके मैं और भी बेचैन हो गया हूँ ।सबा की आँखों से आँसूओ की छड़ी सी लग गई बोली बासु !अगर तुम बात नहीं करोगे तो मै कैसे ज़िन्दा रह पाऊँगी तुम्हारे बग़ैर।
शाम गहरी हो चुकी थी। भीगती आँखों और बोझिल मन से सबा बासु को अलविदा कह कर चल पड़ी।जानती थी उसकी ज़िन्दगी का सफ़र अब आसान नहीं होगा मगर कोई चारा नहीं था ,सिवाय अपनी तक़दीर के फ़ैसले को मानने के और बासु भी अपनी हथेलियों से अपने मुँह को छिपा कर फूट फूट कर रो रहा था। दोस्तों! ओह !! ये कहानी बहुतो की हो सकती है। इतना प्यार ..इतना दर्द ..इतनी गहराई और फिर मिल न पाना ..कितना असहनीय होता होगा जिनको ऐसे हालातों में से गुजरना पड़ता होगा और कितने दुख की बात है कि हम आज भी मज़हबों में उलझ कर ,अपने ही हाथों से बच्चों की ख़ुशियों पर ग्रहण लगा देते है।हमारा कहना तो वो मान जाते है मगर वो ख़ुश ,कहाँ रह पाते है।कभी सोचा है कि वो पूरी ज़िन्दगी कैसे मर मर कर अपना जीवन काटेंगे।
प्यार करना कोई बुरी बात नहीं है।जिस का किसी के साथ जो रिश्ता बनना होता है वो तो पहले से निर्धारित है फिर हम और आप कंयू उसे बदलना चाहते है । किसी को दर्द दे कर , किसी को अलग करके , किसी से बल छल करके, कोई कैसे चैन से रह सकता है ?
किसी को तंग करके कभी किसी का भला नहीं हुआ। न आज !! न पहले कभी !!
:_ लेखिका स्मिता ✍️
लेख/विचार
होनहार “शौर्य मोहन”, भावी संस्कृत विद्वान
शौर्य मोहन, जीव विज्ञान के छात्र, वीरेंद्र स्वरूप शिक्षा केंद्र, श्यामनगर, कानपुर, यूपी के प्रतिष्ठित स्कूल ने कक्षा बारहवीं सीबीएसई (2023)परीक्षा में संस्कृत में 100/100 अंक प्राप्त किए।वे 10 वर्ष की उम्र से ही हिंदी और संस्कृत में कविताएँ लिखने लगे थे। उनका सपना संस्कृत के विद्वानों के लिए अपनी वेबसाइट बनाने का था। जब वह 12 साल के थे, तब उन्होंने अपनी दादी के साथ संस्कृत में बातचीत शुरू की, जो अभी भी उनकी संस्कृत की गुरु हैं । वह अपनी शिक्षिका को अपनी प्रेरणा मानते हैं।
वह ब्रिन-ओ-ब्रेन, गणित, प्रतियोगिता में दो बार राष्ट्रीय चैंपियन रह चुके हैं तथा स्कूल स्तर पर वाद-विवाद प्रतियोगिता में भी चैंपियन रह चुके हैं । इसके अतिरिक्त जब उन्होंने विश्वविद्यालय में 100 से अधिक शोधार्थियों के सामने राष्ट्रीय संगोष्ठी में संस्कृत में शोध पत्र प्रस्तुत किया तो उनकी बहुत सराहना हुई। वह अपनी संस्कृति और सभ्यता के लिए भावुक हैं। उनका लक्ष्य निकटतम भविष्य में संस्कृत में चरक संहिता और अन्य प्राचीन साहित्य को आम आदमी की भाषा में सुलभ कराना है ताकि वर्तमान समय में आयुर्वेद और भारतीय संस्कृति को मजबूत किया जा सके।
मां से… मायका
मायके से लगाव ताउम्र रहता है। कहीं भी घूम आओ मगर जब तक मायके ना घूम आओ तब तक घूमना अधूरा रहता है। मैं भी मायके जाने के लिए उल्लासित थी। सोचा भाभी को खबर तो कर ही दूं आने की और फोन लगा दिया भाभी को।
मैं:- “भाभी मैं होली के बाद आने वाली हूं लेकिन अभी तारीख तय नहीं है।
भाभी:- “अए बच्ची होली यहीं मना लेती हमरे पास। आ जाओ ईहां।” भाभी बोली
मैं:- “होली में ही नहीं आ सकती, बच्चों के एग्जाम हैं उसके बाद ही आना हो पाएगा। बाद में तारीख बताती हूं आपको।” फोन रख कर मैं कैलेंडर देखने लगी कि कौन सी तारीख निश्चित करना उचित रहेगा।
मैं भी सोच रही थी कि बहुत समय हो गया है पीहर गये हुए। पहले कोविड में नहीं जा पाई फिर लॉकडाउन के चलते कैंसिल हो गया और अब व्यस्तता के कारण टलता जा रहा था मायके जाने का प्रोग्राम और वैसे भी बहुत मन लगा हुआ था कि एक बार घूम कर आ जाऊं वहां से। आखिरकार होली के बाद का प्रोग्राम बना ही लिया।
जाने की खुशी तो थी ही लेकिन सब से मिलने की उत्सुकता ज्यादा थी। कपड़ों की पैकिंग भी शुरू कर दी जबकि जाने में अभी एक हफ्ते का समय था। क्या ले जाना क्या नहीं, खरीदारी की लिस्ट, क्या खाना क्या बनवाना भाभियों से, कहाँ घूमना सब दिमाग में घूमने लगा। पूरे हफ्ते भर का प्लान दिमाग में सेट हो गया था। एक सवाल यह भी दिमाग में कौंध रहा था कि पहली बार घर पर मम्मी पापा नहीं होंगे तो पता नहीं कैसा माहौल होगा, कैसा लगता होगा घर बिना मम्मी पापा के, यह सोच कर ही मन भर आया। हालांकि भाभी से रोज बात करते हुए यह आभास हो गया था कि सब अपना सामान्य जीवन जी रहे हैं जैसा कि आमतौर पर सभी घरों में होते आया है।
खैर वो दिन भी आ ही गया जब घर की दहलीज पर पैर रखा। घर जरा बदला हुआ सा लगा। भैया जरा प्रौढ़ता ओढ़े हुये से दिखे। भाभी भी घर का दायित्व उठाती कुछ बड़ी सी नजर आईं। लेकिन फिर भी आंखे़ कुछ और ढूंढ रही थी। दरवाजे पर बाट जोहती मां नहीं दिखी, इंतजार करते पापा नहीं दिखे, पानी लाओ चाय बनाओ कहती आवाज नहीं सुनाई दी, बिट्टू थक गई होगी आओ बैठो कहीं सुनाई नहीं दे रहा था। यह भाव किसी पर इल्जाम नहीं बस मां की कमी अखर रही थी। नजर तलाश रही थी उसे जिससे मैं जोर से गले लग जाया करती थी और किसी की कमी तो कमी ही होती है जो उसके नहीं रहने पर ज्यादा महसूस होती है। इन भावों से मुझे भाभी ने उबार लिया जब उन्होंने मुझे गले लगाया और बोली, “रिशी बहुत राह दिखाती हो”। भाभी के गले लगने पर एहसास हुआ कि अभी मेरा मायका है और मेरा इंतजार भी।
घर को निहारते हुए दीवार पर लगी मम्मी पापा की तस्वीर को देखकर मन उदास हो गया। अभी कुछ समय पहले की बात थी कि हम साथ में बैठकर बातें करते थे, खाना खाते थे और आज उन्हें तस्वीर में देख रही हूं। हालांकि जीवन का सत्य है यही है पर स्वीकार मुश्किल से होता है।
मैं:- “भाभी सर में बहुत दर्द है, चाय पीनी है”।
भाभी:- ” हां! बन गई है बस लाई। एक दिन में आना मतलब भागदौड़ तो हो ही जाता है।”
मैं:- “हां! बहुत थक गई हूं”।
भाभी:- “और रिशी कहां कहां जाने का प्रोग्राम है तुम्हारा?”
मैं:- ” बस भाभी अपनी दौड़ तो वहीं तक है बाजार दौड़ेंगे, चाट खाएंगे” और हम दोनों हंस पड़ते हैं।
अगले दिन सुबह भाभी ने पूछा, “अच्छा रिशी क्या बना दूं तुम्हारे लिए?”
मैं:- “भाभी मुझे तो कढ़ी चावल, कटहल की सब्जी फरे और चाट खाना है और गुझिया भी। यहां आने वाली थी इसलिए मैंने गुझिया नहीं बनाई। मुझे आपके हाथ की खानी थी।”
भाभी;- “लो सबसे पहले गुजिया ही खाओ। बहुत अच्छी बनी है।” और भाभी मेरा मनपसंद खाना बनाने में लग गई।
दिनभर दौड़भाग के बाद रात में जब हम बैठे तब भाभी बोली, “तुम्हारा घर है ये, बेटियों को सोचना नहीं पड़ता मायके आने के लिए और मम्मी पापा नहीं हैं तो क्या हुआ हम तो हैं, हम तुम्हारा इंतजार करते हैं।” माहौल जरा सा बोझिल हो गया था।
एकबारगी एहसास हुआ कि मां की तरह दुलराने वाली भाभी है फिर सामान्य होकर हंसते हुए कहने लगी मैं,” कि आप इंतजार करते हो, बुलाते हो, इतना प्यार देते हो तभी तो दौड़ी हुई आ गई मैं।”
परिचितों से मिलते जुलते, बाजार में घूमते, खरीदी करते हुए समय कब निकल गया मालूम नहीं पड़ा और घर वापसी का समय आ गया।
मैं:; “चलो भाई अब फिर से घर की ओर और वही रूटीन।”
भाभी:- “हां! वह तो है ही मगर अब इतना समय नहीं लगाना। घर जल्दी आना।”
मैं:- “कोशिश रहेगी।” और हंस देती हूं।
विदा लेकर मैं घर वापसी के लिए रवाना हो गई।
स्त्रियां अपना मायका कभी नहीं भुला पाती चाहे वो बूढ़ी ही क्यों ना हो जायें। : प्रियंका वर्मा महेश्वरी
बदलाव जरूरी है
सालभर देश में कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं और चुनावी सरगर्मियां तेज करने के लिए कोई न कोई घटनाएं घटती रहती हैं। घटती हुई घटनाएं और बदलते हुए परिप्रेक्ष्य 2024 की आहट देते महसूस हो रहे हैं।
देश में घटनाएं कितनी तेजी से घट रही हैं साथ ही घटनाओं पर प्रतिक्रियाएं भी। कोई भी घटना स्थिर नहीं रह पाती है। उस पर विवाद, टिप्पणियां चलती रहती हैं और जैसे ही नियम कानून के फैसले की बात आती है तब तक एक दूसरी घटना घट चुकी होती है। लोग पुरानी घटना को भुलाकर नई घटना पर अपना ध्यान केंद्रित कर लेते हैं। नोटबंदी, काला धन, बैंक घोटाले, नेताओं की मनमर्जियां, अभद्र टिप्पणियां, चुनावी हमले, अभद्र बयानबाजी, धर्मांधता, संसद में हंगामा, अडाणी मामला इन पर लगातार घटनाएं घट रही हैं और प्रतिक्रिया स्वरुप अन्य घटना घट जा रही है। एक घटना पर फैसला लंबित रहता है कि दूसरी अचंभित कर देती है। इन सारे मुद्दों में अभी तक कोई हल नहीं निकला है बस दबा दी गई है जैसे सरकारी दफ्तरों में फाइलें एक टेबल से दूसरे टेबल पर सरकती रहती है और धूल खाती रहती है और मीडिया भी सवाल पूछने से ज्यादा मामले को ढकने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाती है।
और यदि आज के मौजूदा हालात पर नजर डालें तो विपक्ष ने जो सवाल पूछा वो गलत नहीं था और सवाल पूछने का हक तो सांसद के साथ-साथ जनता को भी है लेकिन सवाल पूछने का खामियाजा संसद की सदस्यता समाप्ति और पंद्रह हजार जुर्माना मिला। उससे इतर सवाल यह भी है कि अडाणी मामले पर सरकार चुप्पी क्यों साधे हुए है? उसकी जांच क्यों नहीं की जा रही है? पिछले कुछ समय पहले सत्ता पक्ष के बयानों पर नजर डालें तो सत्ता पक्ष द्वारा ऐसे तमाम निम्न स्तरीय बयान है जिनमें नेताओं पर मानहानि के दावे और कानूनी कार्यवाही की जा सकती है। एक सम्मानित महिला पर अभद्र टिप्पणी और सत्तापक्ष के नेताओं की ऊटपटांग बयानबाजी उनके निम्न स्तरीय सोच को ही दर्शाती है।
लोकतंत्र के नाम पर अलग-अलग वक्त पर होने वाली तमाम राजनीतिक बहसों से परे निकल कर देखें तो अटल बिहारी बाजपेई ने अपने एक भाषण में लोकतंत्र का बहुत सुंदर उदाहरण पेश किया है उन्होंने बताया कि कैसे नेता प्रतिपक्ष होने के बावजूद भी उन्हें सरकार की ओर से जिनेवा में सरकार का पक्ष रखने के लिए भेजा गया था। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि, “ऐसा नहीं है कि मेरे नेहरू जी से मतभेद नहीं हैं और मतभेद चर्चा में उभरकर आता भी है। एक दिन मैंने कह दिया कि आपका व्यक्तित्व मिलाजुला हुआ है। आपमें चर्चिल और चेंबरलिन दोनों हैं। नेहरू जी नाराज नहीं हुए और शाम को किसी इवेंट पर मुलाकात होने पर उन्होंने कहा कि आज बड़ा जोरदार भाषण दिया है तुमने और हंसते हुए चले गए। आजकल ऐसी आलोचना करना मतलब दुश्मनी को न्योता देने जैसा है। लोग बोलना बंद कर देंगे”। आज इस तरह की शालीनता कल्पना की बातें हैं। लोग सिर्फ एक दूसरे को नीचा दिखाने में ही लगे हुए हैं। यूं भी आजकल की राजनीति अवसरवादीता हो गई है।
संकीर्ण मानसिकता से किसी राष्ट्र का हित नहीं हुआ है और यदि हम फिर से जाति धर्म भाषा और क्षेत्र में बटेंगे तो क्या लंबे समय तक एक राष्ट्र के रूप में टिके रह पाएंगे? आज क्या सिर्फ गलत का विरोध करने के बजाय सिर्फ विरोध करना ही उद्देश्य रह गया है। जब सत्तायें समाज परिवर्तन और जन विश्वास को हासिल किए बगैर टिके रहना चाहती हैं तो वह अतिवाद के खंभों का सहारा लेती है और यह खंबे ज्यादा समय तक नहीं टिक रहते हैं। लगातार घटती हुई घटनाएं इशारा कर रही हैं कि राजनीति में परिपक्वता जरूरी हो गई है। अपनी मर्यादाओं और आचरण पर लक्ष्मण रेखा स्वयं ही खींचनी होगी। राष्ट्र को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए अपने समकालीन नेताओं के आदर्शों को समझना जरूरी हो गया है।
दिल तोड़ने से पहले सोच लेना …इसमें तू ही रहता है
तोड दे तू चाहे ..मुझे हर तरह से … पर मेरा दिल तोड़ने से पहले ज़रा सोच लेना …इसमें मैं नही तू रहता है
आप का सारा पूजा पाठ का फल निष्फल हो जाता है जब कोई भगवान के भक्त को या किसी भोले इन्सान के मन को दुख पहुँचाता है बात पुरानी मगर सच है। मैं जानती थी पूरो बीजी को , सब उन्हें बीज़ी कहा करते थे। पूरो एक अच्छे घराने की लड़की ,मगर कम पढ़ी लिखी थी ।उसकी शादी एक सुन्दर पढे लिखे नौजवान से हो जाती है। पूरो सोचा करती, उसका पति इतना सुन्दर ,और उसका अपना रंग साँवला सा,क्या उस का पति उसको प्यार दे पायेगा। मगर कहती कुछ नहीं। ख़ुशी से अपनी गृहस्थी चला रही थी।वक़्त बीता ..पूरो के दो बेटियाँ और एक बेटा हुआ। पूरो के पति का राजाओं की तरह रहन सहन था।लखनऊ में होटल था।इक अपनी ड्रामा कंपनी थी और उनका बहुत अच्छा कपड़ों का कारोबार भी था। अक्सर पूरो से कहा करते कि मैं अपनी बेटियों को जयपुर के महाराजाओं के बच्चों के साथ पढ़ाई करवाऊँगा। अपने बच्चों को होटलों में ले ज़ाया करते और इंगलिश तौर तरीक़े सिखाते। बैडमिंटन क्रिकेट और पोलो खेलना तो शौक था उनका। उनका बेटा बढ़ा था ,बेटियाँ छोटी थी अभी।पूरो की छोटी बेटी रतना अभी तीन साल की थी तो पूरो के पति को हैज़ा हो गया। हैज़ा ही उनके गुज़रने की वजह बन गई।पूरो को पढ़ी लिखी न होने की वजह से अपने ससुर और देवर देवरानी के साथ रहना पढ़ा।देवरानी बहुत झगड़ालू क़िस्म की औरत थी।हर बात में पूरो को नीचा दिखाने की कोशिश में रहती।आप ऊपर मकान में रहती थी और नीचे मकान में छोटे से कमरे में पूरो के परिवार को रख दिया। जहां पूरो की रसोई हुआ करती थी वहाँ इक नाली निकला करती जो ऊपर के आया करती थी, जहां उसकी देवरानी का गुसलखाना था,जैसे पहले वक़्तों में हुआ करता था जब भी पूरो धूप बती करके अपने बच्चों को खाना खिला रही होती ,अक्सर उसी वकत उस नाली को शौच की तरह भी इस्तेमाल करती।रब को मानने वाली पूरो ,मुँह से तो कुछ नहीं कह पाती ,मगर अपने रब से शिकायत रोकर कर दिया करती। दिन बितने लगे ,पूरो की बेटियाँ बढ़ी हो गई। अच्छे घरों में शादी करके चली गई। पूरो के बेटे की भी शादी हो गई। फिर पूरो बेटे और बहू के साथ किसी दूसरे घर में चली गई। दोस्तों! जो जैसा करता है ,उसको फल वैसा ही मिलता है मगर इन्सान सोचता है।कर लो ,जो भी करना है आगे किस ने देखा है । मगर भूल जाता है कि चाहे अगर कोई भगवान के मंदिर मस्जिद को तोड़ दे ,भगवान उसे तो माफ़ कर देगा मगर जो कोई उसके भक्त को रूला दे,या उसका दिल दुखा दे या फिर उससे कोई बल छल करे तो रब उसे कभी माफ़ नहीं करता।
ये इक ऐसा सच है जो आज नहीं तो कल ..देखने को मिल ही जाता है। और यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ। पूरो तो वहाँ से अपने बेटे के साथ चली गई,और उधर पूरो की देवरानी के घर ग़रीबी और दुखों का बसेरा हो गया। पूरो की छोटी बेटी रतना सब पुरानी बातें भुला कर अपनी चाचा चाची को मिलने ज़ाया करती। जो भी अपनी माँ पूरो को देती ,वही अपनी चाची को भी देती।चाचा चाची के घर ग़रीबी देख कर ,कभी पैसों से ,कभी दवाइयों से उनकी मदद कर दिया करती,क्यूँकि रतना का पति डाक्टर था। इक रोज़ चाची रतना के सामने रो पड़ी और माफ़ी माँगने लगी कि मैंने तुम्हारी माँ के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया है और तुम मुझे अपनी सगी माँ तरह प्यार करती हो और इस पर रतना अपनी चाची और चाचा को गले लगा लेती। वक़्त का पहिया चल रहा था तो इक रोज़ पता चला कि देवरानी की एक बेटी को कैंसर हो गया और वो भरी जवानी में चल बसी और दूसरी बेटी कमला का पति इंग्लैंड चला गया और वहाँ उसने खुद को सैटल करने लिए दूसरी शादी कर ली।
इक रोज़ सास ससुर ने कमला को घर से निकाल दिया।किसी ने कहा कि कमला की भी दूसरी शादी कर दो।जल्दी ही एक 70 साल के आदमी से उसकी भी शादी इंग्लैंड में कर दी गई जो इक शराबी था। वहाँ इंग्लैंड में मेहनत करके कमला ने अपनी बेटियों की शादी कर दी ।दो साल बाद कमला का दूसरा पति भी गुज़र गया,फिर अकेली अपने दूसरे पति के बच्चों के पास रहने लगी।वहाँ उसे तिरस्कार मिलता ,बातें सुननी पड़ती। कभी कभी बैठे बैठे अपनी माँ को कोसती कि जैसे अब मैं तंग हो रही हूँ ठीक ऐसे ही उसकी माँ ने पूरो ताई को तंग किया था, मगर वक़्त निकल चुका है। दोस्तों बात यहाँ भी ख़त्म नहीं हुई इक रोज़ रतना अपनी चाची चाचा को मिलने गई तो देखा चाचा को स्ट्रोक हो गया था और चाची चल नहीं सकती थी रेंग रेंग कर ज़मीन पर चला करती। ये दुर्दशा देख कर रतना को बहुत दुख हुआ था। चाचा चाची का बेटा भी गुज़र गया था। सो सोचो दोस्तों ! क्या खटा चाचा चाची ने ? जितना बुरा किया था पूरो के साथ ,उससे कही अधिक बुरा उसे वापस मिला।
बात आज की हो, या पुरानी।भुगतना तो पड़ेगा ही सबको कभी न कभी।ये सोच ग़लत है कि शायद उनके साथ हुआ है हमारे साथ नहीं होगा। सब की बारी आती हैं ,जो बोया है वही काटने की। जब समझ में आयेगा ,तो वक़्त निकल चुका होता है। उधर पूरो ने अपनी सारी उम्र पूजा पाठ में लगा दी । मरते दम तक गुरू के घर में सेवा करती रही ….🙏स्मिता केंथ
गंधर्व विवाह
पता नहीं यह मंदिर मुझे क्यों अच्छा लगता था मुझे और यह भी नहीं जानती थी कि यहां बैठकर मुझे शांति क्यों मिलती है? यहीं पर गीत गुनगुनाते हुए भगवान के लिए फूलों की माला बनाना मुझे अच्छा लगता है। मां बाबूजी सुबह – सुबह आकर मंदिर की साफ सफाई में लग जाते हैं। आंगन साफ करना, पौधों में पानी डालना, फूलों का कचरा समेटना उनका यही काम था। मैं भी मां के साथ-साथ मंदिर चली आती थी। पहले पहल तो यूं ही साथ में आ जाती थी लेकिन अब यह बोलकर साथ आती हूं कि तुम्हारे काम में हाथ बंटा दूंगी तो काम जल्दी निपट जाएगा। यहीं पर काम करते-करते मैं छोटी से बड़ी हो गई थी। सभी से मेरी अच्छी जान पहचान हो गई थी। मंदिर में पुजारी मेरे हाथ की बनी माला सामने से मुझसे मांग कर चढ़ाते थे क्योंकि मैं माला बहुत सुंदर बनाती थी। मैं माला की टोकरी मंदिर के सीढ़ियों के पास रख देती थी। पंडित जी पानी के छींटे मारकर टोकरी अंदर ले लेते थे और भगवान को चढ़ा देते थे। यह मंदिर मुझे अब अपना घर जैसा ही लगने लगा था। एक दिन ना आऊं तो कुछ अधूरा सा लगता था।
मां:- “मीता, चलो जल्दी चलना है मंदिर में नए पुजारी आए हैं। अपना काम समय पर हो जाना चाहिए।
मीता:- “ठीक है, मैं नहा कर आती हूं, फिर चलती हूं।” कुछ देर बाद मैं, मां और बाबू जी मंदिर पहुंच गए। बाबू जी पौधों में पानी डालने लगे और मां आंगन की साफ सफाई करने लगी और मैं फूल तोड़ने में व्यस्त हो गई। तभी नए पुजारी ने आवाज दी।
नया पुजारी:- “ऐ लड़की यहां क्या कर रही हो? चलो दूर जाओ मंदिर से।”
मीता:- “जी! भगवान के लिए फूल तोड़ रही थी। वह पुराने पंडित जी मेरी बनाई माला भगवान को चढ़ाते हैं तो…।”
नया पुजारी:- “नहीं! कोई जरूरत नहीं है तुम्हारी माला की। भगवान अपवित्र हो जायेंगे।”
पुराने पुजारी:- अरे शंकर क्या बात है जो मीता को डांट रहे हो? जात की मालन है, फूल तो तोड़ कर दे ही सकती है। कोई बात नहीं भीतर रख दो मैं ले लूंगा बाद में।”
मीता:- “पंडित जी प्रणाम !
शंकर:- “आपकी वजह से ही यह लड़की सर चढ़ी हुई है तभी उसकी इतनी हिम्मत बढ़ जाती है।”
बात आई गई हो गई। मीता बचपन से आगे किशोरावस्था की ओर बढ़ रही थी। वो रोज फूल तोड़कर, मालाएं बनाकर मंदिर की सीढ़ियों पर रख देती थी। जिसे पंडित जी धोकर भगवान को चढ़ा देते थे। आज मीता को मंदिर पहुंचने में देर हो गई थी।
पंडित जी:- “अरे मीता फूल कहां है ? मालाएं भी नहीं बनाई? आज भगवान को बिना श्रृंगार के ही रखने का इरादा है क्या?”
मीता:- “जी! आज देर हो गई, सिर धोना था इसलिए।”
पंडित जी:- “अच्छा… अच्छा ! जाओ जल्दी से फूल लेकर आओ।”
मीता:- “जी!”
आज सुबह मीता फूल तोड़ते हुए गुनगुना रही थी। शंकर पंडित मीता को एकटक देखे जा रहा था। खुले घुंघराले बाल जो हवा के कारण उसके चेहरे पर बार-बार आ रहे थे और जिन्हें वह बार-बार अपने चेहरे से हटा रही थी। शंकर को यह देखकर बड़ा सुखद अहसास हो रहा था। अब वो मीता के प्रति जरा नरम व्यवहार रखने लगा था। कभी कभार बातचीत भी कर लेता था। मीता जरा आश्चर्यचकित थी कि पंडित जी में यह बदलाव कैसे और क्यों आ गया था लेकिन वो खुश थी कि चलो अब इनका स्वभाव अच्छा हो गया है तो अब डांट नहीं पड़ेगी।
शंकर:- “देखो मीता तू सब काम किया कर मगर मुझसे दूर रहा कर। पूजा-पाठ के समय तू छू लेगी तो मुझे फिर से नहाना पड़ेगा और पूजा में देर हो जाएगी फिर और बड़े पंडित जी मुझे डांटेंगे।”
मीता:- “अरे पंडित जी यह बातें अब कौन मानता है? यह भेद तो अब खत्म हो गया है।”
शंकर पंडित:- “मुझे नहीं पता और मुझसे मुंह मत लड़ा। मुझे भगवान को अपवित्र नहीं करना है। तुम छोटी जात के हो तो तुम्हें अपनी सीमा में रहना चाहिए।”
मीता कुछ बोली नहीं क्योंकि कुछ भी बोलने पर उसे डांट पड़ सकती थी फिर बाबूजी भी उसे ही डांटते यह सोचकर वो चुप रही। शंकर को मीता न जाने कबसे अच्छी लगने लगी थी। उसकी नजर जब तब मीता को खोजते रहती। मीता इन बातों से अनजान अपने काम में व्यस्त मस्त रहती थी।
शंकर:- “मीता! आज फूल कुछ कम लग रहे हैं ! थोड़े तुलसी के पत्ते और फूल लेकर आओ।”
मीता:- “जी !”
फूल और तुलसी के पत्ते देते हुए मीता का हाथ शंकर के हाथों को छू गया।
शंकर:- “यह क्या किया ? अब फिर से नहाना पड़ेगा! सब खराब कर दिया!” मीता घबरा गई और दो कदम पीछे हट गई।
मीता का स्पर्श शंकर को रोमांचित कर गया। वह खुद को बहुत पुलकित महसूस कर रहा था और उसकी नजरें मीता को तलाश रही थी। इधर मीता डांट के डर से शंकर के सामने जाने से डर रही थी। अब शंकर किसी ना किसी बहाने से मीता को छूने का प्रयास करता और फिर उसे झिड़की देकर नहाने चला जाता। मीता अब उसके सामने जाने से बचती। उसके आने के पहले ही फूल सीढ़ियों पर रख कर चली जाती। एक दिन शंकर ने मीता को बुलाया और पूछा, “क्यों मीता आजकल दिखाई नहीं देती हो? जल्दी फूल रखकर चली जाती हो? फूल मुरझा जाते हैं ऐसे फूल भगवान को कैसे चढ़ाऊं?”
मीता कुछ बोली नहीं बस अपने पैर के अंगूठे को देखती रही।
शंकर:- “कल से ताजे फूल लाकर देना समझी।”
मीता ने सुकून की सांस ली कि पंडित जी ने डांटा नहीं।
अब रोज की दिनचर्या हो गई थी मीता फूल लाकर सीढ़ियों पर रख देती और शंकर फूल लेने के बहाने उससे बातें करता।
सुबह बगीचे में से फूल चुनकर सीढ़ियों पर रखते हुए मीता ने पंडित जी को आवाज लगाई लेकिन प्रत्युत्तर में कोई जवाब नहीं आया। वो सोच में पड़ गई कि फूल ऐसे रख कर जाऊंगी तो पंडित जी नाराज होंगे। वह कुछ देर तक रुकी रही फिर आवाज लगाई लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। थोड़ी देर में पुराने पंडित जी दिखाई दिए।
पंडित जी:- “अरे मीता! यहां क्या कर रही हो इस समय?”
मीता:- “जी, फूल देने आई थी मगर महाराज जी दिखे नहीं तो रुक गई।”
पंडित जी:- “अच्छा ठीक है, तुम जाओ मैं फूल ले लेता हूं।”
मीता:- “आज वह महाराज नहीं आये हैं क्या?”
पंडित जी:- “हां, शंकर को बुखार हो गया है, वो घर पर आराम कर रहा है।”
मीता:- “जी !”
पंडित जी:- ” तेरी मां को शंकर के यहां भेज देना। घर गंदा पड़ा है तो वह साफ सफाई कर देगी।
मीता:- “जी !”
मीता:- “मां! बड़े पुजारी जी कह रहे थे कि आपको शंकर महाराज के घर की साफ सफाई के लिए जाना है।”
मां:- “नहीं, मैं नहीं जा पाऊंगी। आज काम के बाद बाजार से सब्जी और राशन लाना है और गैस का बाटला खत्म हो गया है तो वो भी लाना है। आज मेरे पास बिल्कुल भी समय नहीं है। ऐसा कर आज तू ही काम करके आ जा।”
मीता:- “ठीक है।”
मीता शंकर के घर की ओर निकल जाती है। घर पहुंचते ही मीता शंकर को कंबल ओढ़े हुए देखती है।शंकर:- “कौन है?”
मीता:- “महाराज जी मैं हूं मीता। घर की सफाई करने आई हूं।”
शंकर:- “ठीक है कर लो” और शंकर उसे काम करते हुए देखता रहता है। उसकी नजरें उसके चेहरे से हटकर उसके पूरे शरीर का मुआयना कर रही थी। मीता का ध्यान नहीं था शंकर पर। वह अपने काम में व्यस्त थी। शंकर के लिए अपने ऊपर नियंत्रण रख पाना मुश्किल हो गया था। वह उठा और मीता को पीछे से पकड़कर उठा लिया। मीता घबरा गई।
मीता:- “पंडित जी ! आप मुझे क्यों छू रहे हैं? ऐसे क्यों पकड़ रहे हैं?”
शंकर:- “कुछ नहीं, घबराओ मत! मैं कुछ नहीं कर रहा। तुम बहुत सुंदर हो, थक गई होगी लो पानी पियो” और उसने मीता को पानी दिया। मीता ने डरते हुए, सकुचाते हुए पानी का ग्लास हाथ में लिया।
शंकर:- “देखो! तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो लेकिन लोकलाज के डर से मैं तुम्हें कुछ नहीं कहता और इसी डर से मैं तुम्हें अपना भी नहीं सकता। क्या ही अच्छा हो कि तुम मेरी पत्नी बन जाओ। क्या तुमने गंधर्व विवाह का नाम सुना है?”
मीता:- “वो क्या होता है?”
शंकर:- “जिसमें दो लोग अपनी इच्छा से ईश्वर को साक्षी मानकर विवाह कर लेते हैं।”
मीता:- “जी, नहीं सुना है”।
शंकर:- “आओ हम दोनों गंधर्व विवाह कर लें।”
मीता कुछ सोच समझ नहीं पा रही थी। वह बाहर जाने के लिए मुड़ी तो शंकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसके कान के पास जाकर फुसफुसा कर कहा, “आज से तुम मेरी पत्नी हो और महाराज की आज्ञा तुम्हें माननी पड़ेगी।”
मीता कुछ समझ नहीं पा रही थी और डर से विरोध भी नहीं कर पा रही थी। शंकर उसे अपने बाहुपाश में लेकर अपने जाल में फंसा रहा था और मूक जानवर की तरह मीता का वध हो रहा था। कुछ दिनों तक यही सिलसिला चलता रहा। वह उसे घर की साफ सफाई के बहाने बुलाते रहता और उसका शोषण करता रहा। कुछ दिनों बाद मीता के पैर भारी हो गए। उसे उल्टियां आने लगी और जी मिचलाने लगा। मां को चिंता हुई तो वह उसे डॉक्टर के पास ले गई।
डॉक्टर:- “आपकी बेटी की शादी हो गई है?
मीता की मां:- “नहीं! क्यों? आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं?”
डॉक्टर:- “उम्र काफी कम है इसकी लेकिन आप लोगों में बेटियों की शादी जल्दी कर देते हैं इसीलिए पूछा। यह पेट से है।”
मीता की मां:- “क्या!”
मीता की मां के पैरों तले जमीन सरक गई। मां – बेटी दोनों घर लौट कर आ गईं।
मां:- “बता कौन है वह? कहां मुंह काला करती फिर रही है? बता! नहीं तो मार डालूंगी?
मीता:- “मां, वह मंदिर के पुजारी… उन्होंने मुझसे शादी की है।”
मां के तन बदन में आग लग गई और दो चार थप्पड़ रसीद दिये मीता को और सर पकड़ कर बैठ गई। दुख और क्रोध के कारण आंसू निकलने लगे। जब पिता को सब बात पता चली तो वह तनाव में आ गए। उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करें। दोनों पति – पत्नी ने शंकर पंडित के पास जाने का निश्चय किया। अगले दिन दोनों पति-पत्नी डरते हुए बड़े पुजारी के पास गये और उन्हें सारी बातें बताईं। पंडित जी को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने मीता को बुलवाया।
बड़े पुजारी:- “क्यों मीता यह तेरे मां बाऊजी जो कह रहे हैं क्या वह सही है?”
(मीता सिर झुकाए हुए) “जी!”
पंडित जी:- “तुम्हें शर्म नहीं आती ऐसी ओछी बात करते हुए? तुम्हें अंदाजा है कि इसका नतीजा क्या होगा?”
मीता कुछ नहीं बोली। वह नीचे बैठ कर रोने लगी। पंडित जी ने शंकर को बुलवाया और उससे सारी हकीकत जाननी चाही।
बड़े पंडित:- “शंकर! मीता कह रही है कि तुमने उससे शादी की है? वह गर्भवती है, क्या यह सही है?”
शंकर:- “नहीं महाराज ! यह सरासर झूठ बोल रही है। मैं तो इसके हाथ का छुआ पानी भी नहीं ले सकता। इसके हाथ से फूल माला भी नहीं लेता। मैं तो इससे दूरी बनाकर रहता हूं फिर इससे शादी की बात कैसे सोच सकता हूं?”
मीता अवाक सी शंकर का मुंह देखती रह गई। मीता के माता-पिता दुखी हो गये। उन्हें पता था कि यही होने वाला है।
पंडित जी:- “देखो! शंकर झूठ नहीं बोल सकता, मैं उसे जानता हूं। तुम लोग मीता से ही पूछताछ करो कि कौन है वह व्यक्ति और मीता तुम मंदिर आना बंद कर दो अभी तुम्हारी जरूरत नहीं है।”
तीनों व्यक्ति दुखी मन से घर वापस आ गए। मीता की मां ने मीता को फिर से भला बुरा कहा और मारा। दुख और क्रोध कम नहीं हो रहा था और कुछ उपाय भी नहीं दिख रहा था। पिता ने बहुत सोच-विचार कर बड़ी हिम्मत करके अगले दिन पुलिस में शिकायत दर्ज करवाने की ठानी।
अगले दिन वह पुलिस चौकी पहुंच गए।
मीता के पिता:- “साब शिकायत लिखवानी है।” इंस्पेक्टर:- “किसके खिलाफ? क्या केस है?”
पिता:- “जी, मंदिर के पुजारी के खिलाफ।” इंस्पेक्टर चौंक गया फिर उसने पूछा कि क्या मामला है।
पिता:- “जी, शंकर पंडित ने बहला-फुसलाकर मेरी लड़की के साथ दुराचार किया है और अब वह अपनी बात से मुकर रहा है” और सारी घटना की जानकारी इंस्पेक्टर को दी।
इंस्पेक्टर जानता था कि पुजारी से पंगा लेना ठीक नहीं है। उसने मीता के पिता को डांट कर भगा दिया और शिकायत दर्ज नहीं की साथ ही धमकी भी दी यदि चुप नहीं रहे तो इसका नतीजा बुरा होगा।
इंस्पेक्टर:- “तुम जैसे लोग पैसा बनाने के लिए कितना नीचे गिर जाते हो! जाओ यहां से नहीं तो अंदर कर दूंगा। तुम्हें भी और तुम्हारे पूरे परिवार को भी।
मीता का पिता अपमानित होकर घर आ गय। कुछ ना कर पाने का दुख और माथे पर कलंक लेकर और बेटी के जीवन का सत्यानाश होते देख कर रोने लगा। कुछ ही दिनों में सबके सामने यह बात खुल जाने वाली थी। यह सोचकर वह अपना सामान बांधने लगा और दूसरे शहर जाने की तैयारी करने लगा क्योंकि इसके सिवा उसके पास कोई चारा नहीं था। – प्रियंका वर्मा महेश्वरी
भव्य समारोह आयोजित कर ‘कन्यादान सेवा संस्थान’ ने करवाया निर्धन कन्याओं का विवाह
कानपुरः अवनीश सिंह। समाजसेवी संस्था कन्यादान सेवा संस्थान के तत्वावधान में बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ उद्देश्य को पूरा करने के साथ-साथ उनका जीवन संवारने की दिशा में एक अभियान के तहत भव्य कार्यक्रम आयोजित करते हुए 6 कन्याओं का विवाह कराते हुए समाज के प्रति अपने कर्तव्य को लेकर एक सजग प्रहरी के रूप में एक उदाहरण पेश किया है। विगत वर्षों की तरह इस वर्ष भी 6 कन्याओं का विवाह कार्यक्रम बर्रा-8 स्थित चौधरी राम गोपाल यादव चौराहा में आयोजित किया। सामूहिक विवाह कार्यक्रम की रौनक देखने लायक रही जिसमें 6 दूल्हे घोड़ी में सवार होकर एक साथ बारात लेकर कार्यक्रम स्थल की तरफ बढ़ते हुए जा रहे थे। इस दौरान संस्थान के सदस्यों के साथ साथ वहां से गुजर रहे राहगीरों व क्षेत्रीय लोगों ने गर्मजोशी से स्वागत किया व दूल्हा और दुल्हन को शुभकामनाएं भी दी।
Read More »जोशीमठ: प्रकृति के साथ खिलवाड़ या प्रशासन की लापरवाही ~ प्रियंका वर्मा महेश्वरी
जोशीमठ (उत्तराखंड) में पड़ती दरारें और बहता हुआ पानी लोगों में दहशत और लोगों का जनजीवन असामान्य बना रहा है। क्या ये मंजर लोगों द्वारा प्रकृति के साथ किये खिलवाड़ का नतीजा है या प्रशासन की लापरवाही का नतीजा है। 1976 में एक अट्ठारह सदस्यीय कमेटी ने जब इस क्षेत्र को संवेदनशील घोषित कर दिया था और निर्माण कार्यों पर प्रतिबंध, पेड़ों को काटने पर रोक और बारिश के पानी के निकासी की व्यवस्था की बात रखी थी तब इस बात को सरकार द्वारा गंभीरता से नहीं लिया गया था और आज लोग इस गल्ती का खामियाजा भुगत रहे हैं। इस कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि जोशीमठ बालू और पत्थर के ढेर पर बसा हुआ है, इस दृष्टि से यह किसी टाउनशिप के लिए उपयुक्त नहीं है। धमाकों और भारी यातायात से उत्पन्न होने वाले कंपन यहां पर प्राकृतिक असंतुलन पैदा करेंगे। भारी निर्माण कार्य की अनुमति केवल मिट्टी का भार वहन करने की क्षमता के दृष्टिगत ही दी जानी चाहिए। सड़कों की मरम्मत या अन्य किसी प्रकार के निर्माण कार्य किसी भी स्थिति में पहाड़ों को खोदकर अन्यथा विस्फोट करके नहीं किये जाने चाहिए। भूस्खलन प्रभावित इलाकों में पत्थरों और बड़े शिलाखंडों को पहाड़ी की तलहटी से नहीं हटाया जाना चाहिए क्योंकि इससे पहाड़ को मिलने वाली मजबूती खत्म होती है। 47 बरस पहले की इस रिपोर्ट को सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया और आज जोशीमठ पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
चमोली जिला प्रशासन के अनुसार यहाँ 3900 आवासीय मकान और 400 व्यावसायिक भवन है। एक ऐतिहासिक और धार्मिक धरोहर का विध्वंस सरकार द्वारा बरती गई लापरवाही के कारण भुगत रहे हैं। फरवरी 2021 में इसी इलाके में भयंकर बाढ़ की आपदा को अभी तक लोग भूले नहीं है। जोशीमठ से मात्र 22 किलोमीटर की दूरी पर बसे गांव रैणी, जोशीमठ, नंदा देवी नेशनल पार्क और यहां बन रही तपोवन विष्णुगढ़ जल विद्युत परियोजना को इस बाढ़ ने तबाह कर दिया था। इस तबाही में 200 लोगों की जानें चली गई थी। पर्यावरणविद काफी समय से सरकार को इस क्षेत्र की भौगोलिक संवेदनशीलता को जताते रहे लेकिन सरकार नजरअंदाज करती रही।
आखिर क्यों रिपोर्ट की जानकारी होने के बावजूद निर्माण कार्य की मंजूरी दी गई? और रिपोर्ट पर प्रशासन ने संज्ञान क्यों नहीं लिया? क्यों लोगों की जीवन के साथ खिलवाड़ किया गया?
2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त की गई एक वैज्ञानिक कमेटी ने इस क्षेत्र के बड़े डैम और बड़ी विद्युत परियोजना पर रोक लगाने की सिफारिश की थी लेकिन केंद्र सरकार ने इस समिति की रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया। देहरादून स्थित “पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट” के निदेशक डॉ रवि चोपड़ा जो इस समिति के सदस्य थे इस बाबत लगातार अपना प्रतिरोध दर्ज कराते रहे हैं।
रूह रोती है तो आंखों से लावा टपकता है
इतनी तेज गर्मी है आज, और ऊपर से गाड़ी बीच सड़क पर रूक गई।कोई मैकेनिक भी नज़र नहीं आ रहा। किसे कहूँ कि मेरी कोई मदद कर दे। कोई आस पास दिखाई भी नहीं दे रहा था।खुद पर ही झुनझुला उठी थी रेवा। रेवा ने टैक्सी ली और घर पहुँच
गई।रेवा पानी का गिलास ले कर निढाल सी सोफ़े पर बैठ गई।मन भर आया था उसका ,किस से कहे ,अपने मन की बात।
जब से होश सँभाला था तब से काम कर रही थी।बच्चे जब छोटे थे।अपनी माँ रेवा को इतना काम करते देखते तो कहते,बस माँ !तुम फ़िक्र न करो जब हम बड़े हो जायेगे।तुम्हें हम रानी बना कर रखेंगे।नौकर होंगे हमारी माँ के आसपास।
आँखे नम हो गई रेवा की ,सोचने लगी।कैसे जब उसके घुटनों में बहुत दर्द था सीढ़ियाँ भी नहीं चढ़ पाती थी तो कैसे उसके बेटे हाथ दे कर उसे ऊपर के फ़्लोर पर ले कर ज़ाया करते थे।अपने बच्चों को याद कर रेवा का धैर्य टूट गया और आँखे दरिया की तरह बह निकली। दोस्तों ! कभी-कभी हम जब रोते है तो सिसकियाँ सुनाई देती है मगर जब कभी रूह रोती है तो आवाज़ नहीं होती सिर्फ़ आँखों से लावा टपकने लगता है। सोचा करती थी कि कुछ सालों में बेटे बड़े हो जायेंगे तो ज़िन्दगी आसान हो जायेगी।थक कर घर आती ,तो भी ख़ुश रहती ,अपने बेटों को देख कर ,अपने पति को देख कर।दोनों बेंटो को पढ़ा लिखा कर रेवा ने उन्हें पैरों पर खड़ा कर दिया था।अब दोनों बेटे अलग रहते थे।एक बेटा तो शादी करके अलग हो गया था जिसके ऊपर रेवा को बहुत नाज़ था।रेवा हर वक़्त उसे छोटे -छोटे कह कर पूरा घर सिर पर उठा लिया करती।रेवा को यकीन था कि उसका वो बेटा उसके साथ कंधे से कंधा मिला कर उसकी ज़िन्दगी को आसान कर देगा मगर विधाता को कुछ और मंज़ूर था। क्या वजह रही होगी ,रेवा आज तक नहीं समझ पाई।उसके बाद दुख हो या सुख,कभी उसके बेटे का फ़ोन तक नहीं आया ।
अब रेवा अकेली रहती हैं अपने किराये के मकान में ,ज़िन्दगी का सफ़र हँस कर गुज़ार रही है बिना किसी शिकायत के।किस से कहे,कि वो अब थक चुकी है काम करते करते मानसिक रूप से और शारीरिक रूप से।रेवा का बड़ा बेटा बहुत ध्यान रखता था उसका।हर रोज़ मिलने भी आ जाया करता।रेवा का हर दुख समझता था,जितनी हिम्मत होती ,उतनी मदद भी कर देता।यूँ तो रेवा अपनी रोटी कमाने में संक्षम थी मगर कभी-कभी उसका भी मन करता उसके बच्चे भी उसे उतना प्यार करें जैसे वो किया करती थीं।
देखते ही देखते एक दम से बाहर बादल घिरने लगे,अन्धेरा छाने लगा था,जैसे बारिश बरसने को बेक़रार थी।बिजली गरजने के साथ तेज बरसात शुरू हो गई।रेवा खिड़की के पास खड़ी ,बाहर बरसात को देख कर ,
यादों के समुद्र में डूब कर सुनहरी यादो के मोती चुनने लगी।ठीक ऐसी ही बरसात थी।जब वो कालेज के बाहर खड़ी बस का इंतज़ार कर रही थी।बसों की स्ट्राइक की वजह से परेशान और ऊपर से बारिश,अभी सोच ही रही थी कि क्या करें।तभी शरद ने मोटर बाईक उसके पास रोक दी।हर रोज़ रेवा को देखा करता मगर बात करने की हिम्मत कभी नहीं हुई थी उसकी। शरद ने कहा ! मैं घर छोड़ देता हूँ आप को। आइये ! इतनी बारिश में कब तक भीगतीं रहेगी।रेवा भी उस दिन न नही कर पाई थीं।उसके बाद मुलाक़ातों का सिलसिला शुरू हो गया था।जल्दी ही दोनों की शादी हो गई।बहुत खुश भी थे दोनो अपने घर संसार में ,उनके बच्चे हुये मगर कुछ सालों बाद शरद बिमार रहने लगे थे और वही बीमारी फिर वजह बन गई उन दोनों के बिछड़ने की।आज रेवा शरद को बहुत याद कर रही थी कि हालात कोई भी रहे शरद ने उसका पूरा साथ दिया।उसे याद आ रहा था कि कैसे जब वो काम से वापस आती ,तो उसका पति उसे ख़ुश करने के लिये गाना गाया करता और रेवा भी उसके सुर में अपना सुर मिला देती और इस तरह रेवा की सारी थकान उतर जाती।
सोच रही थी, कितना सुंदर संसार था उसका ..रौनक़ शोर शराबा , हंसी के ठहाकों से भरा घर,जो आज ख़ाली था,ठीक उसके “दिल की तरह”।
रेवा के पास बहुत पैसा बेशक नहीं था मगर दिल की अमीरीयत बहुत थी। वो सब को प्यार देती।तवज्जो देती। सब का करती मगर अब शरीर काम कर कर के जर्जर हो चुका था उसका।अब सिर्फ़ उसके पास था तो बस “इक इन्तज़ार “कि शायद वो भी कभी सुख की साँस ले सके, वो भी आम लोगों की तरह अपने पोते पोतीयो के साथ वक़्त बिता सके।रेवा बाहर से बहुत स्ट्रोंग बताती थी खुद को मगर अन्दर से बिखर चुकी थी रेवा।इसी उम्मीद पर ही जी रही थी ,कि काश ..कोई उसे भी कह दे कि तुम फ़िक्र न करो ,
हम है न !!तुम्हें समेट लेंगे अपनी आग़ोश में। ये कहानी घर घर की हो सकती है दोस्तों ! ये बात मैं अपने लेखों में लिख बार बार लिखती ही रहूँगी।जिसने माँ बाप को पूज लिया फिर उसे किसी देवता को पूजने की कोई ज़रूरत रह ही नहीं जाती। मगर अफ़सोस हमारा समाज किस और जा रहा है। प्राईवसी के नाम पर ,माडर्नेटी के नाम पर,कहीं न कहीं हम सब ही कितना ग़लत कर रहे हैं।बाहर के देशों का ये चलन हो सकता है मगर हमारे भारत की संस्कृति ये कभी नही हो सकती है। दोस्तों! सोचो !अगर माँ बाप भी लापरवाह हो कर अपने बच्चों को बचपन मे ही छोड़ कर अपना ही स्वार्थ देखते ,तो बच्चों का क्या होता ? अगर माँ बाप ने अपने मुँह से रोटी का निवाला निकाल कर बचपन मे अपने बच्चों का पेट भरा है तो आज बच्चों का भी फ़र्ज़ बनता है कि वो बड़े हो कर अपने माँ बाप को भी सँभाले
यही असली पूजा है भगवान मंदिर में ही नहीं बल्कि सारे देवी देवता हमारे आस पास ही रहते है भिन्न भिन्न रूपों मे। बस देखने का नज़रिया ही चाहिए होता है
लेखिका स्मिता ✍️
जेब्राफिश में पाया जाने वाला प्रोटीन, मानव के मेरुदण्ड अस्थिखण्ड में उम्रदराज डिस्क को फिर से पैदा कर सकता है
जेब्राफिश की रीढ़ की हड्डी में पाया जाने वाला एक प्रोटीन, जो डिस्क रखरखाव में सकारात्मक भूमिका निभाता है और मेरुदण्ड अस्थिखण्ड में उम्रदराज डिस्क को फिर से पैदा करने को बढ़ावा देता है, में कमजोर पड़ चुके मानव डिस्क फिर से पैदा करने की प्रक्रिया को बढ़ावा देने संबंधी चिकित्सीय प्रभाव के मौजूद होने की संभावना हो सकती है।
मनुष्यों में, डिस्क स्वाभाविक रूप से कमजोर पड़ जाती है, जिससे पीठ के निचले हिस्से, गर्दन और उपांग में दर्द सहित कई संबंधित स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं होती हैं। वर्तमान में, कमजोर पड़ चुके डिस्क के लिए केवल रोगसूचक उपचार उपलब्ध हैं, जिनमें दर्द निवारक या सूजन-रोधी दवाएं शामिल हैं। गंभीर मामलों में डिस्क विस्थापन या डिस्क फ्यूजन सर्जरी की जाती है। इस प्रकार, कमजोर होते डिस्क की गति को कम करने या मनुष्यों में डिस्क को फिर से पैदा करने पर आधारित एक उपचार प्रक्रिया को विकसित करने की तत्काल आवश्यकता है। चिकित्सा परीक्षण मानव डिस्क के कमजोर होते जाने के चरणों से सम्बंधित आवश्यक जानकारी प्रदान करते हैं, लेकिन डिस्क के रखरखाव में भूमिका निभाने वाली कोशिका और आणविक प्रक्रियाओं के बारे में सीमित जानकारी उपलब्ध है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कमजोर होते डिस्क की गति को कम करने या मनुष्यों में डिस्क को फिर से पैदा करने पर आधारित कोई चिकित्सा प्रक्रिया या उपचार ज्ञात नहीं है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के स्वायत्त संस्थान, आगरकर रिसर्च इंस्टीट्यूट (एआरआई), पुणे द्वारा किए गए एक अध्ययन में पता चला है कि अंतर-मेरुदंड डिस्क कोशिकाओं से स्रावित कोशिका कम्युनिकेशन नेटवर्क फैक्टर 2ए (सीसीएन2ए) नामक एक प्रोटीन, कमजोर व उम्रदराज होते डिस्क में डिस्क को फिर से पैदा करने को उत्प्रेरित करता है तथा इसके लिए एफजीएफआर 1-एसएचएच (फाइब्रोब्लास्ट ग्रोथ फैक्टर रिसेप्टर-सोनिक हेजहोग) पाथवे नामक तरीके को संशोधित करके कोशिका प्रसार करता है और कोशिका को संरक्षित करता है।
एक मॉडल जीव के रूप में ज़ेब्राफिश का उपयोग करने वाला यह अध्ययन विवो अध्ययन में पहला है, जो दिखाता है कि अन्तःविकसित सिग्नलिंग कैस्केड को सक्रिय करके कमजोर व उम्रदराज होते डिस्क में डिस्क को फिर से पैदा करने को उत्प्रेरित करना संभव है। वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि सीसीएन2ए- एफजीएफआर 1-एसएचएच, सिग्नलिंग कैस्केड डिस्क के रखरखाव और डिस्क को फिर से पैदा करने की प्रक्रिया में सकारात्मक भूमिका निभाता है। जर्नल, डेवलपमेंट में प्रकाशित इस अध्ययन में आनुवांशिकी और जैव-रसायन दृष्टिकोण का उपयोग किया गया है और यह डिस्क के कमजोर होती प्रक्रिया की गति को धीमा करने या कमजोर हो चुके मानव डिस्क में डिस्क को फिर से पैदा करने की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करने के लिए एक नई रणनीति तैयार करने में मदद कर सकता है।
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