जोशीमठ (उत्तराखंड) में पड़ती दरारें और बहता हुआ पानी लोगों में दहशत और लोगों का जनजीवन असामान्य बना रहा है। क्या ये मंजर लोगों द्वारा प्रकृति के साथ किये खिलवाड़ का नतीजा है या प्रशासन की लापरवाही का नतीजा है। 1976 में एक अट्ठारह सदस्यीय कमेटी ने जब इस क्षेत्र को संवेदनशील घोषित कर दिया था और निर्माण कार्यों पर प्रतिबंध, पेड़ों को काटने पर रोक और बारिश के पानी के निकासी की व्यवस्था की बात रखी थी तब इस बात को सरकार द्वारा गंभीरता से नहीं लिया गया था और आज लोग इस गल्ती का खामियाजा भुगत रहे हैं। इस कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि जोशीमठ बालू और पत्थर के ढेर पर बसा हुआ है, इस दृष्टि से यह किसी टाउनशिप के लिए उपयुक्त नहीं है। धमाकों और भारी यातायात से उत्पन्न होने वाले कंपन यहां पर प्राकृतिक असंतुलन पैदा करेंगे। भारी निर्माण कार्य की अनुमति केवल मिट्टी का भार वहन करने की क्षमता के दृष्टिगत ही दी जानी चाहिए। सड़कों की मरम्मत या अन्य किसी प्रकार के निर्माण कार्य किसी भी स्थिति में पहाड़ों को खोदकर अन्यथा विस्फोट करके नहीं किये जाने चाहिए। भूस्खलन प्रभावित इलाकों में पत्थरों और बड़े शिलाखंडों को पहाड़ी की तलहटी से नहीं हटाया जाना चाहिए क्योंकि इससे पहाड़ को मिलने वाली मजबूती खत्म होती है। 47 बरस पहले की इस रिपोर्ट को सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया और आज जोशीमठ पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
चमोली जिला प्रशासन के अनुसार यहाँ 3900 आवासीय मकान और 400 व्यावसायिक भवन है। एक ऐतिहासिक और धार्मिक धरोहर का विध्वंस सरकार द्वारा बरती गई लापरवाही के कारण भुगत रहे हैं। फरवरी 2021 में इसी इलाके में भयंकर बाढ़ की आपदा को अभी तक लोग भूले नहीं है। जोशीमठ से मात्र 22 किलोमीटर की दूरी पर बसे गांव रैणी, जोशीमठ, नंदा देवी नेशनल पार्क और यहां बन रही तपोवन विष्णुगढ़ जल विद्युत परियोजना को इस बाढ़ ने तबाह कर दिया था। इस तबाही में 200 लोगों की जानें चली गई थी। पर्यावरणविद काफी समय से सरकार को इस क्षेत्र की भौगोलिक संवेदनशीलता को जताते रहे लेकिन सरकार नजरअंदाज करती रही।
आखिर क्यों रिपोर्ट की जानकारी होने के बावजूद निर्माण कार्य की मंजूरी दी गई? और रिपोर्ट पर प्रशासन ने संज्ञान क्यों नहीं लिया? क्यों लोगों की जीवन के साथ खिलवाड़ किया गया?
2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त की गई एक वैज्ञानिक कमेटी ने इस क्षेत्र के बड़े डैम और बड़ी विद्युत परियोजना पर रोक लगाने की सिफारिश की थी लेकिन केंद्र सरकार ने इस समिति की रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया। देहरादून स्थित “पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट” के निदेशक डॉ रवि चोपड़ा जो इस समिति के सदस्य थे इस बाबत लगातार अपना प्रतिरोध दर्ज कराते रहे हैं।