मायके से लगाव ताउम्र रहता है। कहीं भी घूम आओ मगर जब तक मायके ना घूम आओ तब तक घूमना अधूरा रहता है। मैं भी मायके जाने के लिए उल्लासित थी। सोचा भाभी को खबर तो कर ही दूं आने की और फोन लगा दिया भाभी को।
मैं:- “भाभी मैं होली के बाद आने वाली हूं लेकिन अभी तारीख तय नहीं है।
भाभी:- “अए बच्ची होली यहीं मना लेती हमरे पास। आ जाओ ईहां।” भाभी बोली
मैं:- “होली में ही नहीं आ सकती, बच्चों के एग्जाम हैं उसके बाद ही आना हो पाएगा। बाद में तारीख बताती हूं आपको।” फोन रख कर मैं कैलेंडर देखने लगी कि कौन सी तारीख निश्चित करना उचित रहेगा।
मैं भी सोच रही थी कि बहुत समय हो गया है पीहर गये हुए। पहले कोविड में नहीं जा पाई फिर लॉकडाउन के चलते कैंसिल हो गया और अब व्यस्तता के कारण टलता जा रहा था मायके जाने का प्रोग्राम और वैसे भी बहुत मन लगा हुआ था कि एक बार घूम कर आ जाऊं वहां से। आखिरकार होली के बाद का प्रोग्राम बना ही लिया।
जाने की खुशी तो थी ही लेकिन सब से मिलने की उत्सुकता ज्यादा थी। कपड़ों की पैकिंग भी शुरू कर दी जबकि जाने में अभी एक हफ्ते का समय था। क्या ले जाना क्या नहीं, खरीदारी की लिस्ट, क्या खाना क्या बनवाना भाभियों से, कहाँ घूमना सब दिमाग में घूमने लगा। पूरे हफ्ते भर का प्लान दिमाग में सेट हो गया था। एक सवाल यह भी दिमाग में कौंध रहा था कि पहली बार घर पर मम्मी पापा नहीं होंगे तो पता नहीं कैसा माहौल होगा, कैसा लगता होगा घर बिना मम्मी पापा के, यह सोच कर ही मन भर आया। हालांकि भाभी से रोज बात करते हुए यह आभास हो गया था कि सब अपना सामान्य जीवन जी रहे हैं जैसा कि आमतौर पर सभी घरों में होते आया है।
खैर वो दिन भी आ ही गया जब घर की दहलीज पर पैर रखा। घर जरा बदला हुआ सा लगा। भैया जरा प्रौढ़ता ओढ़े हुये से दिखे। भाभी भी घर का दायित्व उठाती कुछ बड़ी सी नजर आईं। लेकिन फिर भी आंखे़ कुछ और ढूंढ रही थी। दरवाजे पर बाट जोहती मां नहीं दिखी, इंतजार करते पापा नहीं दिखे, पानी लाओ चाय बनाओ कहती आवाज नहीं सुनाई दी, बिट्टू थक गई होगी आओ बैठो कहीं सुनाई नहीं दे रहा था। यह भाव किसी पर इल्जाम नहीं बस मां की कमी अखर रही थी। नजर तलाश रही थी उसे जिससे मैं जोर से गले लग जाया करती थी और किसी की कमी तो कमी ही होती है जो उसके नहीं रहने पर ज्यादा महसूस होती है। इन भावों से मुझे भाभी ने उबार लिया जब उन्होंने मुझे गले लगाया और बोली, “रिशी बहुत राह दिखाती हो”। भाभी के गले लगने पर एहसास हुआ कि अभी मेरा मायका है और मेरा इंतजार भी।
घर को निहारते हुए दीवार पर लगी मम्मी पापा की तस्वीर को देखकर मन उदास हो गया। अभी कुछ समय पहले की बात थी कि हम साथ में बैठकर बातें करते थे, खाना खाते थे और आज उन्हें तस्वीर में देख रही हूं। हालांकि जीवन का सत्य है यही है पर स्वीकार मुश्किल से होता है।
मैं:- “भाभी सर में बहुत दर्द है, चाय पीनी है”।
भाभी:- ” हां! बन गई है बस लाई। एक दिन में आना मतलब भागदौड़ तो हो ही जाता है।”
मैं:- “हां! बहुत थक गई हूं”।
भाभी:- “और रिशी कहां कहां जाने का प्रोग्राम है तुम्हारा?”
मैं:- ” बस भाभी अपनी दौड़ तो वहीं तक है बाजार दौड़ेंगे, चाट खाएंगे” और हम दोनों हंस पड़ते हैं।
अगले दिन सुबह भाभी ने पूछा, “अच्छा रिशी क्या बना दूं तुम्हारे लिए?”
मैं:- “भाभी मुझे तो कढ़ी चावल, कटहल की सब्जी फरे और चाट खाना है और गुझिया भी। यहां आने वाली थी इसलिए मैंने गुझिया नहीं बनाई। मुझे आपके हाथ की खानी थी।”
भाभी;- “लो सबसे पहले गुजिया ही खाओ। बहुत अच्छी बनी है।” और भाभी मेरा मनपसंद खाना बनाने में लग गई।
दिनभर दौड़भाग के बाद रात में जब हम बैठे तब भाभी बोली, “तुम्हारा घर है ये, बेटियों को सोचना नहीं पड़ता मायके आने के लिए और मम्मी पापा नहीं हैं तो क्या हुआ हम तो हैं, हम तुम्हारा इंतजार करते हैं।” माहौल जरा सा बोझिल हो गया था।
एकबारगी एहसास हुआ कि मां की तरह दुलराने वाली भाभी है फिर सामान्य होकर हंसते हुए कहने लगी मैं,” कि आप इंतजार करते हो, बुलाते हो, इतना प्यार देते हो तभी तो दौड़ी हुई आ गई मैं।”
परिचितों से मिलते जुलते, बाजार में घूमते, खरीदी करते हुए समय कब निकल गया मालूम नहीं पड़ा और घर वापसी का समय आ गया।
मैं:; “चलो भाई अब फिर से घर की ओर और वही रूटीन।”
भाभी:- “हां! वह तो है ही मगर अब इतना समय नहीं लगाना। घर जल्दी आना।”
मैं:- “कोशिश रहेगी।” और हंस देती हूं।
विदा लेकर मैं घर वापसी के लिए रवाना हो गई।
स्त्रियां अपना मायका कभी नहीं भुला पाती चाहे वो बूढ़ी ही क्यों ना हो जायें। : प्रियंका वर्मा महेश्वरी