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54वें इफ्फी में लता मंगेशकर मेमोरियल टॉक का आरंभ

गोवा में आयोजित 54वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (इफ्फी) में एक गहन बोध वाले सत्र में फिल्म निर्माता शेखर कपूर ने “मानव रचनात्मकता बनाम कृत्रिम आसूचना” विषय पर वार्तालाप में भाग लिया। इस सत्र का संचालन सुधीर मिश्रा ने किया। इस मास्टर क्लास का आयोजन लता मंगेशकर मेमोरियल टॉक सीरिज के अंतर्गत किया गया। इसका आयोजन इफ्फी और सत्यजीत रे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान ने संयुक्त रूप से किया।

वार्तालाप की शुरुआत करते हुए शेखर कपूर ने मानव बुद्धि के अद्वितीय गुणों पर जोर देते हुए व्यक्तियों से अपने दिल की बुद्धिमत्ता पर गर्व करने का आग्रह किया। उन्होंने मानसिक बुद्धिमत्ता से अधिक भावनात्मक बुद्धिमत्ता के महत्व पर जोर देने के लिए बॉब डायलन को उद्धृत करते हुए कहा, “मेरी सबसे अच्छी पंक्तियां उतनी ही तेजी से लिखी गईं जितनी तेजी से मेरा हाथ लिख सकता था।”

उन्होंने मानव स्वभाव को विशिष्ट बनाने वाले अंतर्ज्ञान, पसंद और सनकीपन जैसे तत्वों को रेखांकित करते हुए एआई के मानव बुद्धि पर हावी होने की धारणा पर सवाल उठाया। यद्यपि एआई संरचनाओं को तोड़ सकती है और तेजी से बदलाव ला सकती है, लेकिन कपूर ने प्राय: रचनात्मकता और परिवर्तन के साथ आने वाले अज्ञात और भय को अंगीकार करने के महत्व पर जोर दिया।

अपनी फिल्म निर्माण की यात्रा पर मंथन करते हुए कपूर ने बताया कि किस तरह अज्ञात का भय और रहस्य का विचार कलात्मक प्रयासों को प्रेरित करता है। उन्होंने कहा, “ एक ही पहाड़ पर दोबारा चढ़ना मुझे भयभीत करता है। यही कारण है कि मेरी सभी फिल्में अलग-अलग शैली की हैं।”

उन्होंने कहा  कि एआई अराजकता पैदा नहीं कर रही है, बल्कि परिवर्तन हैरतंगेज गति से आ रहा है और मनुष्य इसे संभालने में सक्षम नहीं हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि एआई के प्रभुत्व वाली दुनिया में कलाकारों और दार्शनिकों को नेतृत्व करना चाहिए, क्योंकि वे अराजकता से सहजता से निपटने में सक्षम हैं। उन्होंने अनुचित में कारण तलाशने में कला की भूमिका पर बल देते हुए एक दार्शनिक परिप्रेक्ष्य बल दिया, जिसमें कहा गया है कि “सभी कलाएं स्वयं को तलाशने का रचनात्मक कार्य है।”

एआई को तेजी से अपनाए जाने के संबंध में कपूर ने इसकी अनिवार्यता को स्वीकार किया और समाजों को इसकी संभावनाओं पर विचार करने की आवश्यकता बतायी । उन्होंने एआई की परिवर्तनकारी प्रकृति का स्वागत करते हुए एक ऐसे भविष्य की परिकल्पना की जहां तर्क और विवेक रचनात्मकता को राह देंगे। अस्तित्व के उभरते परिदृश्य में सृजन और विनाश की चक्रीय प्रकृति पर बल देते हुए कपूर ने परिवर्तन की आवश्यकता पर गौर करते हुए अपनी बात समाप्त की।