सामाजिक क्रांति के इतिहास में के डॉक्टर बाबा साहेब आम्बेडकर के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। विलायत से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उच्च डिग्री प्राप्त करने के बाद बाबा साहब आम्बेडकर 1917 में भारत आये।
अपने करार के अनुसार कुछ समय उन्होने बड़ौदा रियासत में अर्थ मंत्री के रूप में कार्य किया। लेकिन वे यहां अधिक नहीं रह पाये। दरबार के कार्कुन अछूत समझकर उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया करते। उच्च शिक्षित और इतने ऊंचे पद पर आसीन होने के बावजूद भी उन्हें अपमान सहना पड़ा।
बाबासाहब आम्बेडकर का मुंबई आगमन:
दरबार की नौकरी छोड़कर उसी वर्ष वे मुंबई लौट आए। जल्द ही मुंबई के सिडनहम कॉलेज में पॉलिटिकल इकॉनोमिक के प्राध्यापक के रूप में उनका चयन हो गया। बाबा साहब अपने समय के सब से अधिक शिक्षित व्यक्तियों में से एक थे। इसके बावजूद स्वयं उन्हें कई बार जाति के नाम पर अपमानित होना पड़ा था। दलितों के इस उत्पीड़न को बाबा साहब ने बहुत करीब से देखा और मेहसूस किया था। वे जानते थे कि देश में सदियों से अछूत कह कर दलितों का समाजिक बहिष्कार किया जाता रहा है। उन्हें आज भी अस्पृश्य समझा जाता है। कहीं मंदिर प्रवेश से रोका जाता तो कहीं रास्ते पर चलने तक की पाबंदी होती। सार्वजनिक तालब, कुओं से उन्हें पानी तक लेने की इजाज़त न होती। दलितों के साथ हो रहे इस अमानवीय व्यव्हार ने बाबा साहब को बहुत गहरे तक आहत किया लेकिन वे निराश नहीं हुए। सदियों से चले आ रहे इस अन्याय के खिलाफ उन्होंने संघर्ष करने का निश्चय कर किया । दरअसल बाबा साहब इन सामाजिक बुराइयों को जड़ से मिटाना चाहते थे।
उस समय देश में अंग्रज़ों का शासन था। गाँधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम का संघर्ष जारी था। बाबा साहब का कहना था कि “दलित समाज की मुक्ति के बिना हमारी स्वतंत्रता अधुरी है।” दलित समाज की मुक्ति के लिये बाबा साहब आम्बेडकर ने जन संघर्ष और सामूहिक आंदोलन के मार्ग को चुना था । वे जानते थे कि संघर्ष द्वारा एक तरफ उन्हें अपने अधिकार तो प्राप्त होंगे ही साथ ही सदियों से पीड़ित दलित तबके के भीतर आत्मसम्मान की भावना भी जागृत होगी।
महाराष्ट्र में दलित समाज की स्थित:
महाराष्ट्र कई स्थानों पर दलितों को सार्वजनिक तालाब या कुएँ से पानी लेने की अनुमति नहीं थी। यदि कोई दलित व्यक्ति सार्वजनिक तालाब से पानी लेने की हिम्मत दिखाता तो पूरे समाज को इसके परिणाम भुगतने पड़ते। कितनी अजीब बात है जल, ज़मीन और वन जैसी प्राकृतिक संपदा जिस पर प्रत्येक प्राणी का अधिकार है लेकिन दलितों को अछूत कह कर
उनका बहिष्कार किया जाता था।
संघर्ष के मार्ग का चयन:
बाबा साहब स्वयं दलित समुदाय से थे । वे भारतीय समाज की सनातनी व्यवस्था से भलीभांति परिचित थे। अंग्रेजों के शासन में भी भारतीय समाजिक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आया था। सार्वजनिक जीवन में उन्हें बहिष्कृत जीवन ही जीना पड़ता। दलितों की इस दशा देख कर वे बड़े आहत हुए। अपने भविष्य को लेकर बाबा साहब आंबेडकर के सामने दो मार्ग थे। एक तो अपनी शिक्षा को आधार बनाकर धन दौलत कमाते या फिर असहाय दलितों की आवाज़ बन कर उनकी की मुक्ति के लिए संघर्ष करते। बाबा साहब ने संघर्ष की राह चुनी। इसी के साथ सन 1924 को मुंबई में उन्होंने दलित उद्धार के लिए ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ नामी एक संस्था बनाई। इस सभा में अस्पृश्य सदस्यों के साथ-साथ ऊंची जाति के भी सदस्य जुड़े थे। कई स्थानों पर इस संस्था के अंतर्गत सभाओं का आयोजन भी