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परिंदा

याद आता है अब भी वह गुजरा ज़माना
वो दोस्तों के जमघट वो हंसना हँसाना
मस्त हवाओं का संगीत झूमते पेड़ों का तराना
वो आज़ाद परिंदों का सुरों में चहचहाना,
घर की ऊँची मुँडेर पे डाले बाजरे के दाने
को चुगने पंछियों का लगातार आना जाना
उन पंछियों में एक परिंदा सबसे अलग था
उसे मेरी मुँडेर पसंद थी या फ़िर मेरा गाना
हर सुबह मुझे भी उसका इंतेज़ार रहता था
मुझे देख उसका चहचहाना अच्छा लगता था
याद आता है मुझे वो हर मुलाक़ात के बाद
निशानी के रूप में अपना पंख छोड़ जाना ,
अब ना वो शजर है, न वो मुँडेर न वो परिंदे
शजर जिस पर नीड़ था, बंजर है बेजान है
हाँ नीड़ अब भी उस ठूंठ शजर पे  विधमान है
थकी आँखो से बुलाता है परिंदे कभी तो आना
परिंदा अब कभी नहीं आएगा,मालूम है फ़िरभी
नीड़ की सूखी टहनियां उसको बुलाती हैं
शजर का ठूंठ भी कब का बिखर गया होता
बूढ़ी जड़ों को ज़मीं की नयी हरियाली ने थामा
याद आता है अब भी वह गुजरा ज़माना
वो दोस्तों के जमघट वो हंसना हँसाना