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उम्मीदें

बदलते समय की धारा में क्या अपनी उम्मीदों को ठंडा होने दिया जाए, आखिर यह उम्मीदें हैं क्या।उम्मीदें किसी के प्यार की, उम्मीदें आगे बढ़ने की, उम्मीदें नई शुरुआत की,उम्मीदें कुछ हासिल करने की आखिर उम्मीदें ही तो हमें आगे बढ़ने का जज्बा देती हैं, और क्या-क्या नहीं दिया हमें इन उम्मीदों ने।एक नन्हे से बालक की उम्मीद ने एक को अल्बर्ट आइंस्टाइन बना दिया तो दूसरे को न्यूटन। एक की उम्मीद ने उसे कल्पना चावल तो दूसरे की उम्मीद ने माधुरी दीक्षित। देखा जाए तो उम्मीद से ही जिंदगी कायम  है अगर यह ना हो तो सृष्टि, जो कि परिवर्तनशील है वहीं जस की तस रह जाएगी, कोई बदलाव की संभावना ना होगी।

पूजा खत्री लखनऊ

जैसे एक कहावत कही जाती है कि दस मुलाकातों के लिए एक मुलाकात जरूरी है ऐसे ही किसी सफलता के लिए उम्मीद का होना अनिवार्य है।बिना आजादी की उम्मीद के क्या भारत को गुलामी की बेड़ियों से निकालना संभव था जो सपना स्वतंत्र भारत का क्रांतिकारियों ने देखा था,क्या संभव था? चरखा युग से औद्योगिक युग संभव था और तो और क्या एक चाय वाले का भारत का प्रधानमंत्री बनना संभव था,इन सपनों को पूरा करने का श्रेय किसको, उस उम्मीद को जिसने किसी भी दिल में एक छोटी सी बिसात के रूप में जन्म लिया और एक सफलता के रूप में सामने आकर पैरों को चूम लिया। क्या बिना किसी लक्ष्य को बांधे  किसी भी मुकाम पर सफलता पाना संभव है, आज भी महाभारत के अर्जुन अपनी बाण विद्या के  लिए याद किए जाते हैं, किंतु बिना किसी लक्ष्य को निर्धारित किए सर्वोच्च धनुर्धारी के रूप में विख्यात हो पाना संभव न था
उम्मीद का होना ही इस बात की तासीर है कि हम सपने देखते और पूरा करने का जज्बा भी रखते हैं, पर क्या केवल उम्मीद का होना ही सफलता का आधार है..? उम्मीद हमेशा से सकारात्मक और नकारात्मक सोच से प्रभावित होती है “हां होगा”, “अवश्य होगा”, यह सोच हमें सफलता के  बहुत पास “और क्या यह होगा” अथवा “क्या मैं कर पाऊंगा”असफलता की श्रेणी में खड़ा कर देती है। सफलता की इस कसौटी पर परिस्थितियों का भी विशेष प्रभाव होता है, उचित परिस्थिति में अपनी उम्मीदों को पूरा करना आसान होता है, हिमालय की चोटी पर अरुणिमा का साहस ले गया किंतु सत्यता यह भी है कि उम्मीद को जगाकर ही ऐसा कर पाना उसके लिए संभव हुआ, जहां यही उम्मीद जिंदगी में आशा के दीप जलाती है वहीं दूसरी और असफल होने का दुख का आधार बन जाती है, हम दुखी होते हैं, क्योंकि हम उम्मीद करते हैं और जब वह उम्मीद हमारी कसौटी पर खरी नहीं उतरती तो हम मायूस हो जाते हैं एक नये दुख का शिकार। जैसे आज हम इंसानों में दुख ज्यादा है क्यूंकि उम्मीदें हैं अपनों से और दुनिया बेगानी होती जा रही है सब भेड चाल में चल रहे है, एक दूजे से मुंह फाड़े अपेक्षाएं रख कर।
पर फिर भी तो देखना यह है कि यथार्थ के धरातल पर आधे भरे पानी के गिलास का कौन सा पहलू हमें लुभाता है आधा भरा उम्मीद का या आधा खाली मायूसी का।