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कोरोना संकटकाल, प्रवसन और प्रवासी मजदूर एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण

‘‘जिन्दगी क्या किसी मुफलिस की कबा है, जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबन्द लगे जाते है’’ -फैज 

अपनी अस्मिता और पहचान के संकट, बेहतर आर्थिक दशाओं की उम्मीद और आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ करने के सपनों को लेकर जन्म स्थान से दूर किसी अन्य सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में सामूहिक रूप से स्थायी-अस्थायी रूप से बसने की स्थिति को सामान्यतया आप्रवास/प्रव्रजन/देशान्तरण कहते हैं। किसी एक भौगोलिक/राष्ट्रीय क्षेत्र से दूसरे भौगोलिक/राष्ट्रीय क्षेत्र में सापेक्षतः स्थाई गमन की प्रक्रिया प्रव्रजन/देशान्तरण के नाम से जानी जाती हैं। इसी से मिलती-जुलती दो अन्य अवधारणायें यथा उत्प्रवास और आव्रजन हैं। किसी व्यक्ति द्वारा अपने देश को छोड़कर दूसरे देश में जाने की प्रक्रिया ‘उत्प्रवास’ (एमिग्रेशन) कहलाती  हैं। इसके विपरीत, देश में आने की प्रक्रिया को ‘आव्रजन’ या आप्रवास (इमिग्रेशन) कहते हैं। इसके अतिरिक्त प्रव्रजन का एक दूसरा रूप भी है जिसे ‘आन्तरिक प्रव्रजन’ कहते हैं। इस प्रकार प्रव्रजन में एक ही देश में एक स्थान से दूसरे स्थान जैसे गाँव से शहर की ओर निष्क्रमण अथवा शहर के मध्य क्षेत्र से उपनगरों की ओर गमन की प्रक्रियायें भी सम्मिलित की जाती हैं। आप्रवास की प्रकृति के अनुसार भी इसके कई रूप है जैसे चयनित या मौसमी, स्थायी या अस्थायी। प्रवसन की प्रक्रिया प्रारम्भ में भले ही कम रही हो लेकिन सभी देशों और सभी समयों में रही हैं।

औद्योगिक क्रान्ति के पूर्व प्रवसन का मुख्य कारण राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक आप्रवास की स्थितियां ही दृष्टिगोचर होती है लेकिन 11वीं शताब्दी की औद्योगिक क्रान्ति ने समस्त समाज को नयी परिस्थितियों से रूबरू कराया जिसमें आर्थिक आयाम के विभिन्न नये वर्ग का उदय हुआ जिसे माक्र्स ने ‘सर्वहारा’ कहा। औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् उद्योग एवं व्यापार आधारित आप्रवास क्रमशः तीव्र और प्रमुख हो गया।

कुछ बेहतर पाने की आस में या कृषि से बेदखली के पश्चात जीविकोपार्जन के अन्तिम विकल्प के रूप में मिलों, कारखानों में काम करने हेतु बढ़ी संख्या में गाँवों से लोगों ने शहरों की ओर पलायन करना प्रारम्भ किया तो कहीं-कहीं सस्ते श्रम की जुगाड़, आर्थिक शोषण की प्रवृत्ति और अपनी औद्योगिक श्रम की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु साम्राज्यवादी राष्ट्रों ने अपने अधीन रहे राष्ट्रों से बढ़ी संख्या में इस पलायन को स्वीकारोक्ति एवं संरक्षण प्रदान किया।विश्वव्यापीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की प्रक्रिया तथा सूचना संचार क्रान्ति के तालमेल से इसके अन्तर्राष्ट्रीय स्तर विभिन्न सकारात्मक एवं नकारात्मक आयाम एक साथ देखने को मिले। आज वैश्विक त्रासदी कोविड-19 महामारी के प्रभाव में नकारात्मक पहलू ज्यादा सामने आ रहा है क्योंकि बाजारवादी/उपभोगवादी समाज में चाहे बात श्रमिकों के पलायन की हो या प्रतिभाओं के निरन्तर पलायन की हो, प्रत्येक सन्दर्भ में हमें पक्ष एवं विपक्ष में अपने-अपने मत व्यक्त करने वालो के दो स्पष्ट समूह दिख जायेंगे। इन समस्याओं पर तटस्थ होकर एक भारतीय के रूप में विचार करना ही इस लेख का उद्देश्य है। उन तथ्यों पर भी विचार करना होगा जिनके कारण आज कुछ राज्यों में प्रवसन दर अधिक है तो उसके क्या कारण है। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र और कुछ समय से गुजरात भी अब इस सूची में शामिल हुआ है जिनकी ैण्क्ण्च्ण् ;ैजंजम क्वउमेजपब च्तवकनबजपवदद्ध अर्थात राज्य के सकल घरेलू उत्पादन में प्रति व्यक्ति सूची में सबसे ऊपर है और वहाँ गरीबी का प्रतिशत कम होने के कारण अन्य राज्यों के प्रवासी आकर्षित होते हैं। उदाहरण के लिये बिहार जो उच्च जनसंख्या वृद्धि दर, अत्यधिक गरीबी और खराब एस.डी.पी. वाला प्रदेश है, वहा के लोग पलायन के प्रति अधिक आकर्षित होते है। इस कारण वहा प्रवसन 1000 व्यक्तियों पर 31 से अधिक है। पश्चिम बंगाल एक और ऐसा राज्य है जहाँ दूसरे राज्यों के प्रवासी जाते है परन्तु कुछ समय से यह दर कम हुई हैं। कुछ नये अध्ययनों में सामने आया है कि महाराष्ट्र पूरे देश से विशेषतः उत्तर प्रदेश एवं बिहार से प्रवासियों को आकर्षित करता है। यू.पी. और बिहार से निकलती प्रवासी धारा प्रायः पूरे भारतवर्ष में फैल चुकी है। अगर हम नीतियों की बात करें तो बिहार अब तक कई बार विभाजन की नीति से प्रभावित हुआ हैं। 1911 में तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेन्सी से उड़ीसा एवं बिहार को पृथक किया गया; 1136 में बिहार को एक पृथक प्रशासकीय प्रान्त के रूप में स्थापित किया गया। स्वतन्त्र भारत में 15 नवम्बर 2000 को खनिज एवं वन सम्पदा से समृद्ध छोटा नागपुर एवं संथाल परगना परिक्षेत्र को झारखण्ड के रूप में बिहार से अलग कर दिया गया। स्वतन्त्रतापूर्व से अब तक बिहार में उत्प्रवास (आउट माइग्रेशन) की प्रक्रिया सतत रूप से चलती रही। भारत के दुर्गम से दुर्गम स्थान पर बिहारी आप्रवासी दिख जाते है लेकिन चर्चा में तब आते है जब किसी प्राकृतिक आपदा या मानवीय संवेदनहीनता के शिकार बनते है या दुर्घटनाओं का शिकार होते है। उत्तर प्रदेश उभरता उत्तम प्रदेश हो या बिहार (घर) से बाहर काम की तलाश जिसमें रोटी हाथ में हो, इस उम्मीद से शारीरिक तथा मानसिक स्तर पर कठोर एवं अमानवीय कार्य हेतु बाध्य है। कठिन परिस्थितियों में महज जीवनयापन के उद्देश्य से निकल पड़ते हैं। सामाजिक तथा आर्थिक स्तर पर प्रताड़क असुरक्षा का भाव लिये, जीवन को बनाये और बचाने रखने के क्रम में पेन्डुलम की तरह झूलते हुए व्यवस्थित जीवन की लय खो चुके होते है। इतना ही नहीं घर से दूर होकर प्रायः विभिन्न कारणों से ये अपनी पैतृक सम्पत्ति (घर-बार, जानवर, खेत-खलिहान) और सांस्कृतिक पूँजी के रूप में स्थानीय तीज-त्यौहारों से भी दूर हो जाते है, जो इनमें उत्साह और उमंग का संचार करते थे। घर-द्वार छूटते ही सब छूट जाता है और यन्त्रवत कार्यशैली जीवन का हिस्सा बन जाती है। शोषण या अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में रहने से, लगातार 10-12 घंटे काम करने साथ ही अपर्याप्त भोजन जैसी समस्याओं के कारण जल्दी ही रुग्ण, अक्षम और कमजोर हो जाते हैं। इन तमाम परिस्थितियों को फिर चाहे कोरोना संक्रमणकाल से जनित लाॅकडाउन (तालाबन्दी) हो, रोजगार का संकट, घर-वापसी हेतु कोई समुचित साधन न होना, जेब और पेट दोनों खाली इसी को नियति मानकर सबकुछ गवाँ देते हैं। प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों होता हैं? क्यों वे हजारों किमी दूर जाते है? क्यों आज जब हम बैठे है घरों में वे सड़कों पर सपरिवार, ससामान, चिलचिलाती धूप में, कई-कई दिनों तक घर वापसी का सफर तय करते है कि जो देहरी कई वर्षों से छूट गयी उसे अनिश्चितता के दौर में चूम तो सकें? इनके अनेक उत्तर हो सकते है। इन उत्तरों में सर्वाधिक जटिल यदि राजनीतिक बौद्धिकता के उत्तर है तो सर्वाधिक सरल रूप में सामाजिक परिस्थितियों का आंकलन करते हुए समाजशास्त्रीय उत्तर है। अपने पैतृक (मूल) स्थान में उपलब्ध संसाधनों, सेवाओं एवं आय के स्रोतों के प्रति सापेक्ष वंचना अर्थात दूसरे की तुलना में कमी का भाव। अपेक्षाकृत बेहतर संसाधनों, साधनों, सेवाओं एवं आय के नये-नये स्रोतों की प्राप्ति के अवसर उपलब्ध होने पर व्यक्ति अपना मूल स्थान छोड़कर परदेश या अन्य क्षेत्रों में जाता है। यह प्रत्येक कोण से सही हैं।

जब राज्यों में परिस्थितियाँ नागरिकों की जीवन-प्रत्याशा के अनुकूल नहीं रहती तब रोजगार का संकट उन्हें राज्य से पलायन हेतु विवश करता है। उनके पास वर्तमान परिस्थितियों में कोई अन्य उचित एवं सम्मानजनक विकल्प शेष नहीं बचता। वे राज्य जिनको सर्वोच्च बनाने में इन्हीं आप्रवासियों ने अहम भूमिका अदा की अपने सस्ते श्रम से, सहज उपलब्धता से। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में वही राज्य इनसे पल्ला झाड़ते नजर आ रहे हैं। मजबूरन घर-वापसी हेतु मीलों चलते, दुर्घटनाओं का शिकार हो रहे है। एक बात ये भी सच है कि किसी राज्य पर मंडरानेवाला कोई भी काला बादल देर-सबेर अन्यों को भी आच्छादित कर सकता हैं इसलिए आवश्यकता हैं इस सन्दर्भ में तार्किक, सहिष्णु, ईमानदार और वस्तुतः बौद्धिक दृष्टिकोण की। ‘‘श्रमेव जयते।’’

लेखिका डाॅ. नेहा जैन, पं. दीनदयाल उपाध्याय राज.म.स्ना. महाविद्यालय लखनऊ में समाजशास्त्र की विभागाध्यक्ष हैै