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व्रत त्यौहार पर अवधारणाएं क्यों~प्रियांका वर्मा महेश्वरी

कुछ व्रत त्यौहार बहुत खास होते हैं और वो अपने शहरों तक ही सीमित रहते हैं लेकिन अब बहुत से व्रत त्यौहार बहुत से राज्यों में मनाये जाने लगे हैं जैसे करवा चौथ पहले कुछ शहरों तक ही सीमित था लेकिन फिल्मों के जरिए धीरे-धीरे इतना ज्यादा प्रचलित हो गया कि जगह जगह यह त्यौहार मनाया जाने लगा। मैं मेरे प्रदेश गुजरात की ही बात करती हूं कि कुछ सालों पहले तक करवा चौथ का व्रत करते कोई नहीं दिखाई देता था। हिंदी भाषी लोग ही यह व्रत करते थे लेकिन अब गुजराती महिलाएं भी यह व्रत करते हुए दिखाई दे रहीं हैं वो भी बहुत धूमधाम से। एक करवा चौथ ही नहीं हरियाली तीज भी बहुत उत्साह से मनाते हुए देखा जा सकता है। ऐसे कई त्यौहार है जो अब जाति या भाषाई महत्व को नकार कर उत्साहपूर्वक अपना रहे हैं।

हमारा आम सामाजिक जीवन इन तीज त्योहारों पर से बहुत जुड़ा हुआ है, खास तौर पर महिलाओं का। घरेलू महिलाओं की दुनिया बहुत छोटी होती है। वो घर, पति और बच्चों तक ही सीमित रहती है। ये छोटे बड़े त्यौहार ही उनके जीवन में खुशियाँ बिखेरते हैं। एक करवा चौथ ही क्यों बल्कि तीज, वटसावित्री, गणेश चतुर्थी (सकट), छठ पूजा और भी अन्य त्यौहार हैं जो बड़े उत्साह से वे मनाती आ रही हैं। पकवान बनाना, तैयार होना और अपनी संगी साथियों के साथ उत्सव मनाना उनका शगल होता है। इसी बहाने परिचितों और रिश्तेदारों के साथ वक्त भी गुजरता है। यह बात घरेलू महिलाओं पर ज्यादा लागू होती है।
बदलते समय के चलते आज महिलाएं घर से बाहर की दुनिया में लगातार कदम बढ़ाते जा रही हैं साथ ही उनके काम और जिम्मेदारी भी बढ़ती जा रही है। ऐसे समय में घर और बाहर की दोहरी भूमिका निभाते हुए इस प्रकार का पूजा पाठ करना उनके लिए संभव नहीं होता। और वो इनसे बचतीं हैं।  हालांकि इसके लिए उन्हें घर बड़े बुजुर्गों की नाराजगी उठानी पड़ती है मगर अनदेखा करने के अलावा कोई पर्याय नहीं रहता है या फिर कलह की वजह बनती हैं यह बातें। यह भी कहते सुना है कि आज मनुष्य चांद पर पहुंच गया है तो फिर इस प्रकार के व्रत के क्या मायने? बहुत सी महिलाएं ऐसे व्रत नहीं रखती हैं तो उन पर दबाव का भी कोई मतलब नहीं रहता क्योंकि मन से की गई हर चीज की खुशी मिलती है ना कि जबरदस्ती से कराये गये काम की। एक तरफ इस प्रकार का सवाल है तो दूसरी ओर पढ़ी – लिखी महिलाएं भी चांद को पूजती है, पति के लिए निर्जला व्रत रखती हैं और इस प्रकार के सभी नियम पालती हैं।
मैंने देखा है कि कुछ महिलाएं अनिच्छा से इस तरह के व्रत उपवास करतीं है। परिवार और समाज के दबाव के चलते मजबूरीवश निभाती हैं इन रीति रिवाजों को।  काफी समय से चली आ रही परंपराओं को बदल पाना और लोगों को समझाना खासकर बुजुर्गों को यह बहुत मुश्किल काम है। अक्सर देखा है कि पति पत्नी के रिश्तों में कड़वाहट है, अपनापन नहीं है, सम्मान नहीं है तो ऐसे में इस प्रकार के पूजा पाठ की क्या अहमियत रह जाती है? वो इन बंधनों में इस तरह जकड़ी हुई हैं कि उन्हें इसमें से बाहर निकल पाना आसान नहीं लगता और कुछ तो खुद ही महिलाओं ने ही अपने आप को जकड़ रखा है इन रूढ़ियों में।
कहीं कहीं सकारात्मक पहलू भी दिख जाता है कि पत्नी के साथ पति भी उपवास रखते हैं। एक रंग के कपड़े पहनना, एकसाथ उपवास खोलना, साथ साथ खाना खाना। यह प्रेम है और एक दूसरे के प्रति देखभाल का नजरिया है। उपहारों का देन लेन भी महज प्रेम प्रदर्शन का जरिया मात्र है। बहुत से लोग उपहार नहीं भी देते हैं तो क्या इससे प्रेम नहीं रहता  है? यह एक मिथ्या बात है।
समाज में इन व्रत उपवासों का दूसरा पहलू भी देखने को मिलता है कि बड़े घर घरानों की महिलाओं ने इस प्रकार के व्रतों को काफी लग्जरियस त्यौहार बना दिया हुआ है। ड्रेस कोड, पूजा थाली डेकोरेशन, प्राइज , गिफ्ट्स वगैरह प्रोग्राम अरेंजमेंट और भी तरह तरह के कार्यक्रमों के जरिये यह त्यौहार मनाया जाता है।
यूं भी त्यौहार उल्लास का पर्व है ना कि बंधन और रूढ़ियों का। पकवान बनाने से लेकर सजने संवरने और हंसी ठिठोलियों के बीच त्यौहार को मनाने का आनंद कुछ और होता है। इसलिए हर त्यौहार मनाए उल्लास और आनंद के साथ। महिलाएं किटी पार्टी या गेट टू गेदर रखतीं हैं तो वो भी आनंद का एक तरीका ही है।
बदलते समय के साथ साथ इसमें भी बदलाव आने चाहिए। यदि कोई गर्भवती महिला कठोर व्रत करे उसका शरीर यह सहन नहीं कर सकेगा, एक दुधमुँहे बच्चे की भूख शांत करने के लिए मां का स्वस्थ होना जरूरी है, एक स्त्री जो दिनभर घर के काम कर रही है उसे भूख प्यास तो लगेगी ही, बाहर काम करने वाली महिलाओं को ज्यादा दिक्कत का सामना करना पड़ता है। ये व्रत उपवास स्वास्थ्य सही रखने के लिए रखे जाते हैं ना कि स्वास्थ्य खराब करने के लिए। वक्त के साथ साथ इनमें भी बदलाव आना चाहिए और सेहत को ध्यान में रखते हुए ही नियम तय करने चाहिए।
बदलाव होने चाहिए ना कि रुढ़ियों को ढोते रहना।