विक्षिप्तता पंगु होने का दूसरा रूप है। पंगु व्यक्ति शरीर से लाचार होता है और विक्षिप्त व्यक्ति दिमाग से लाचार। बच्चियों, महिलाओं के प्रति बढ़ते हुए अपराध सीमा लांघते हुए नजर आ रहे हैं। 10, 15, 17 साल की बच्चियां जो दुनिया को अभी ठीक से जानती भी नहीं वहशियों की दरिंदगी का शिकार हो जाती है। ऐसा नहीं है कि कानून नहीं है और नए कानून बने नहीं लेकिन यह कानून कारगर कितने हैं? न्याय मिलने में वक्त कितना लगता है? इसके अलावा उन बच्चियों का पूरा जीवन डर और समाज की घूरती और प्रश्नवाचक नजरों का सामना करते हुए बीत जाता है। शादी ब्याह में भी खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता होगा क्योंकि हम अभी भी बाह्य रूप से तो बदल गए हैं लेकिन मानसिक रूप से अभी भी रूढ़िवादी हैं। अपनी सहज सुविधानुसार ही हम चीजों को अपनाते और छोड़ते हैं।
मैंने देखा है कि युद्ध में भी शिकार महिलाएं ज्यादा होती है। उनके हिस्से में बर्बरता ज्यादा आती है। अपने दुश्मन को सबक सिखाने के लिए और अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए कमजोर निहत्थी महिलाओं को हथियार बनाया जाता है। युद्ध हो, राजनीतिक साजिशें हों या सिर्फ भोग्य नजरिया निशाना सिर्फ बच्चियां, महिलाएं ही होती हैं। अभी हाल ही में उज्जैन की घटना विचलित कर देने के लिए काफी है। दिव्या, आसिफा, ट्विंकल शर्मा यह लोगों के जेहन से उतर गयीं होगीं। उन्नाव, कठुवा, सीतापुर दुष्कर्म की घटनाएं भी लोगों के जेहन से उतर गई होगीं और ऐसी न जाने कितनी घटनाएं हैं जो हर कुछ थोड़े समय पर नजर आतीं है लेकिन लोगबाग भूल बहुत जल्दी जाते हैं। मणिपुर की घटनाएं दिल दहला देने के लिए काफी है। दोनों समुदायों द्वारा की गई हिंसा का शिकार महिलाएं ही ज्यादा रहीं हैं।
कितना अजीब होता है यह शब्द प्रेम और भरोसा। समय के साथ शायद इन सबके मायने भी बदल गए हैं। प्रेम में आंख बंद करके भरोसा करना और मर्यादा से बाहर कदम रखना मतलब आत्मघाती कदम उठाना। इस तरह के कदम ऐसी घटनाओं को अंजाम देते है। एक लड़की जो भरोसे के साथ कदम बढ़ाती है और विक्षिप्त मानसिकता के लोग उनके भरोसे को तोड़कर उसे अपमानित कर समाज में डर फैलाते हैं। इस तरह के लोग समाज के लिए कलंक है और इसे खत्म किया जाना चाहिए।
यह सही है कि कपड़ों को विक्षिप्तता से नहीं जोड़ सकते लेकिन कपड़े भी अश्लीलता के मायने तय करते हैं। बेढंगे कपड़े जिन पर हम स्त्रियों की नजर ठहर जाती है तो पुरुषों की बात ही क्या करना? और आजकल तो रील्स बनाने के नाम पर फूहड़ता बहुत फैलाई जा रही है। छोड़ी, बड़ी उम्र की महिलाएं सीमाएं लांघती नजर आ रही हैं।
विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण एक सहज प्रक्रिया है जिससे हर कोई गुजरता है लेकिन यह आकर्षण इतना ज्यादा होने लगता है कि लोग अच्छा बुरा समझना छोड़ देते हैं। 18+ वाली लड़कियां इसी आकर्षण के चलते अपने साथी पर बहुत जल्दी भरोसा भी कर लेती हैं, क्योंकि आजकल गर्लफ्रैंड को लड़के भावी पत्नी बोलते हैं जिससे उन्हें लायसेंस मिल जाता है मनचाहा कदम उठाने का और इसी चक्कर मे लड़कियां खुद का पतन कर बैठती हैं।
आज बहुत जरूरी हो गया है की लड़कियों को सेक्स, प्यार उससे होने वाले दुष्परिणाम के बारे में जानकारी दी जाए। उन्हें अपनी पारिवारिक परंपराओं और अपनी संस्कृति का ज्ञान दिया जाए ताकि ऐसा कदम उठाने से पहले वो विचार करें और सही गलत का फर्क कर सके।
आखिर क्या वजह है इस विक्षिप्तता की? अपराध पहले भी होते थे लेकिन इतने वीभत्स नहीं। और आज इंसान की जमीर, संवेदनशीलता की बात करना बेमानी है। क्या सोशल मीडिया और फिल्मों के जरिए जो गंदगी परोसी जा रही है वह जिम्मेदार है इन घटनाओं के पीछे? सस्ता मनोरंजन का परिणाम बहुत घातक होता है। लोग मानसिक रोग के शिकार होते जा रहे हैं। इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए और कानून का डर भी होना चाहिए जोकि बहुत जरूरी है।