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  श्राद्ध से तृप्त पितर देते हैं मनोवांछित फल ~डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र पत्रकार)

भारतीय संस्कृति में मृत्यु के बाद भीअव्यक्त जीवन की अवधारणा है| जिसके अनुसार मृत्योपरान्त  सिर्फ शरीर नष्ट होता है, शरीर को सक्रिय रखने वाला तत्व आत्मा कभी भी समाप्त नहीं होता| बल्कि एक समय अन्तराल के बाद वह पुनः नया शरीर धारण कर लेता है| श्रीमद्भगवतगीता के अध्याय दो के श्लोक संख्या 13 और 22 के अनुसार ‘देहिनोSस्मिनयथा देहे कौमारं यौवनं जरा| तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र च मुह्यति|| अर्थात जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता|’, ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोSपराणि| तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही| अर्थात जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नये शरीर को प्राप्त होता है|’ जीवात्मा की व्यक्त-अव्यक्त चक्रीय स्थिति का विस्तृत वर्णन गरुड़ महापुराण के उत्तर खण्ड में मिलता है| अन्य पुराणों, स्मृतियों तथा उपनिषद आदि में भी इस बारे में वृहद् ज्ञान दिया गया है| गरुड़ महापुराण के उत्तर खण्ड के अध्याय 10 के अनुसार मृत्यु के बाद मृतक को मृत्यु स्थान पर शव, वहां से उठाकर द्वार पर रखने के बाद पान्थ, श्मशान के अर्धमार्ग पर भूत, चिता में रखने के बाद साधक तदोपरान्त प्रेत की संज्ञा देते हुए पिण्ड प्रदान किया जाता है| अध्याय 13 के अनुसार बारहवें दिन सपिण्डीकरण अर्थात सपिण्डन क्रिया द्वारा मृत व्यक्ति का पिण्ड तीन भागों में विभक्त करके वसु, रूद्र और आदित्य स्वरुप उसके पिता, पितामह तथा प्रपितामह के पिण्ड के साथ मिला दिया जाता है| इसके बाद वह व्यक्ति प्रेत संज्ञा से मुक्त होकर पितरों की श्रेणी में प्रवेश पा जाता है: ‘प्रेतनाम परित्यज्य यया पितृगणे विशेत्|’  जिनका सपिण्डीकरण नहीं किया जाता है,  उनके पुत्रों द्वारा प्रदत्त अनेकविध दान आदि उन्हें प्राप्त नहीं होते और उनका पुत्र सदैव अशुद्ध बना रहता है| क्योंकि सपिण्डीकरण किये बिना सूतक समाप्त नहीं होता है| ‘न पिण्डो मिलितो येषां पितामहशिवादिषु| नोपतिष्ठन्ति दानानि पुत्रैर्दत्तान्यनेकधा|| अशुद्धः स्यात्सदा पुत्रो न शुद्धयति कदाचन| सूतकं न निवर्तेत सपिण्डीकरणं विना|| (ग.पु./उ.ख./13/3,4)’| गरुड़ महापुराण के उत्तर खण्ड के अध्याय 13 में सपिण्डीकरण की सम्पूर्ण विधि और उसके फल के बारे में विस्तार से बताया गया है| इसी अध्याय में यह भी कहा गया है कि सपिण्डीकरण के दिन से लेकर एक वर्ष तक मृत्यु की तिथि पर पाक्षिक, मासिक तथा वार्षिक श्राद्ध अर्थात पिण्ड, अन्न एवं जलपूर्ण घट आदि का दान जीवात्मा की अक्षय तृप्ति के लिए करना चाहिए| लेकिन वर्तमान समय में आपाधापी भरे जीवन के चलते किसी के पास इतना समय नहीं है कि वह पाक्षिक और मासिक श्राद्ध कर सके| परन्तु पितृ पक्ष में वार्षिक श्राद्ध करने की परम्परा है|

भादों माह की पूर्णिमा से लेकर अश्विन माह की अमावस्या तक 16 दिन का समय पितृ पक्ष के नाम से जाना जाता है| इन दिनों में लोग अपने मृत परिजन की तृप्ति के निमित्त प्रतिदिन जलांजलि देते हैं तथा उनकी मृत्यु तिथि पर पिण्डदान, ब्राह्मण भोजन एवं क्षमतानुसार धन आदि का दान करते हैं| गरुड़ महापुराण के पूर्व खण्ड के अध्याय 212 के श्लोक संख्या एक और दो के अनुसार मृत्यु के एक वर्ष पर्यन्त पुनः सपिण्डीकरण की क्रिया सम्पन्न होनी चाहिए| जिसे सपिण्डीकरण श्राद्ध कहते हैं| यह यथा काल किये जाने पर प्रेत को पितृ लोक का लाभ प्राप्त होता है, इसे अपरान्ह में करना चाहिए: ‘सपिण्डीकरणं वक्ष्ये पूर्णेब्दे तत्क्षयेSहनि| कृतं सम्यगयथाकाले प्रेतादे: पितृलोकदम|| सपिण्डीकरणं कुर्य्यादपराह्ने तु पूर्ववत्|’ लेकिन जानकारी के अभाव में प्रायः लोग स्वजन की मृत्यु के प्रथम वर्ष के पितृपक्ष में इसे सम्पन्न करते हैं| वहीं कुछ लोग तीसरे वर्ष के पितृपक्ष में सपिण्डीकरण श्राद्ध करते हैं| इसे आम आदमी की भाषा में मृत परिजन को पितरों या पुरखों में मिलाना कहा जाता है| अध्याय 212 के श्लोक संख्या 10 में सपिण्डीकरण श्राद्ध, श्राद्धकर्ता तथा श्राद्धफल को विष्णुरूप बताया गया है| ‘श्राद्धं विष्णुः श्राद्धकर्ता फलं श्राद्धादिकं हरिः||’ इसी अध्याय में वार्षिक सपिण्डीकरण श्राद्ध की सम्पूर्ण विधि वर्णित है| उत्तर खण्ड के अध्याय 13 के श्लोक संख्या 129, 130 तथा 131 में बताया गया है कि जो मनुष्य श्राद्ध, दान आदि विधिपूर्वक करता है उसको पिता द्वारा सच्चरित्र पुत्र, पितामह द्वारा गोधन, प्रपितामह द्वारा विविध धन-सम्पत्ति और वृद्ध प्रपितामह द्वारा प्रचुर अन्न आदि प्राप्त होता है| श्राद्ध से तृप्त होकर सभी पितर पुत्र को मनोवांछित फल देकर धर्म मार्ग से धर्मराज के भवन में जाते हैं| वहाँ वे धर्म सभा में परम आदरणीय होकर विराजमान होते हैं: ‘पिता ददाति सत्पुत्रान् गोधनानि पितामह:| धनदाता भवेत्सोSपि यस्तस्य प्रपितामह:|| दद्याद् विपुलमन्नाद्यं वृद्धस्तु प्रपितामह:| तृप्ताः श्राद्धेन सर्वे दत्त्वा पुत्रस्य वांछितम्||’ वहीँ पूर्व खण्ड के अध्याय 99 के श्लोक संख्या 35 से 39 तक में बताया गया है कि जो लोग पितृपक्ष में नित्य पितरों का सविधि श्राद्ध करते हैं वे पुत्र श्रेष्ठ स्थिति, सौभाग्य, समृद्धि, राज्य, आरोग्य, अपने समाज में श्रेष्ठत्व, वाणिज्य में प्रभूतलाभ तथा अनेक शुभ फल पाते हैं| यशस्वी तथा शोकहीन होकर अन्ततः परम गति प्राप्त करते हैं| वे ऐश्वर्य, विद्या, वाक्सिद्धि, ताम्र आदि धातु, गौ, अश्व आदि सम्पदा पाते हैं तथा उनकी आयु बढ़ती है|

चौखम्भा कृष्णदास अकादमी वाराणसी द्वारा प्रकाशित गरुड़महापुराण के भूमिका लेखक डॉ.महेश चन्द्र जोशी ने अपने लेख में विभिन्न पुराणों, स्मृतियों तथा महाभारत आदि ग्रन्थों से उधृत श्लोकों के माध्यम से प्रेत योनि के बारे में विस्तार से बताया है| जिन मनुष्यों की मृत्यु होने पर दाह संस्कार आदि क्रियाएँ नहीं होतीं और जो पलंग आदि (अन्तरिक्ष) में देहत्याग करते हैं, वे निश्चयमेव प्रेत होते हैं| प्रायः वे मनुष्य भी प्रेत होते हैं, जिनकी अन्त्येष्टि सम्यक रूप से नहीं हो पाती, जिनके सपिण्डीकरण श्राद्ध तक के कृत्य नहीं हो पाते तथा जिन मनुष्यों का निधन अपमृत्यु के कारण होता है, जो मनुष्य स्वधर्म त्यागकर विभिन्न प्रकार के पाप करते हैं, अनैतिक और अन्यायी हैं, धर्म विरुद्ध आचरण करते हैं, स्वेच्छाचारी होकर लोभवश अपने कुलधर्म को त्यागकर अन्य देश का धर्म अपना लेते हैं, अपने हितैषी गुरु तथा धर्मोपदेश करने वाले आचार्य के बचनों का पालन नहीं करते, पाखण्ड करते हैं, परस्त्रीगमन तथा मांस भक्षण करते हैं, पतित व्यक्ति का अन्न खाते हैं, देवता, गुरु एवं ब्राह्मण के धन का अपहरण करने वाले, परनिन्दा से सन्तुष्ट होने वाले, देवपूजन एवं पितृ तर्पण किये बिना तथा अपने सेवकों को भोजन दिये बिना भोजन ग्रहण करते हैं, शास्त्रों एवं गुरुजनों के आदेश की अवहेलना करते हैं, ब्रह्महत्या और गोहत्या करने वाले, सुरापान करने वाले, चोरी करने वाले, दूसरों को विपत्ति-ग्रस्त देखकर सन्तुष्ट होने वाले, परनिन्दक, गुरुपत्नीगामी, भूमिहर्ता तथा कन्या का धन हरण करने वाले आदि सभी पातकी जन प्रेत योनि को प्राप्त करते हैं| ऐसे लोग मृत्यु के बाद प्रेत योनि में पहुँचकर स्वयं तो कष्ट भोगते ही हैं, अपने पारिवारिक जनों को भी अनेक तरह से पीड़ा देते हैं| जिन घरों में वंशवृद्धि न हो, अल्प आयु में लोगों की मृत्यु हो जाय, अकस्मात जीविका के साधन समाप्त हो जाएँ या उनमें बड़ी बाधा आ जाय, पारिवारिक सदस्यों की समाज में प्रतिष्ठा घटने लगे, अचानक घर में आग लग जाय, घर में नित्य कलह हो, पत्नी तथा घर के अन्य सदस्य प्रतिकूल आचरण करने लगें, पारिवारिक जनों पर मिथ्या कलंक लगे, घर के सदस्यों को असाध्य रोग लग जाय, प्रयत्न पूर्वक अर्जित धन व्यापार आदि में लगाने पर नष्ट हो जाय| तो यह मानना चाहिए कि वह परिवार प्रेत पीड़ा अथवा पितृ दोष से ग्रस्त है| जिस कुल में पितृ-दोष होता है, उस कुल में कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता| उस कुल में मनुष्यों की मति, प्रीति, रति, बुद्धि, और धन-सम्पदा आदि सब नष्ट हो जाता है और तीसरे से लेकर पांचवीं पीढ़ी आते-आते उनके वंश का ही नाश हो जाता है| प्रेत अपने पारिवारिक जनों के सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और प्रगति के शोषक होते हैं| अतः प्रत्येक मनुष्य की मृत्यु के बाद शास्त्र-विहित अन्त्येष्टि क्रिया से लेकर सपिण्डीकरण पर्यन्त सभी कृत्य विधि-विधान के अनुसार अनिवार्य रूप से सम्पादित करना चाहिए| स्कन्द पुराण के अनुसार मृत व्यक्ति अपने जीवन काल में भले ही महान धर्मात्मा और तपस्वी क्यों न रहा हो, किन्तु सपिण्डीकरण के अभाव में वह भी प्रेतत्व से मुक्त नहीं हो सकता| यदि कोई मृतात्मा अपने पारिवारिक जनों, सम्बन्धियों या परिचितों को स्वप्न में दिखलाई दे तो यह समझना चाहिए कि वह प्रेत रूप में है| अग्नि पुराण के अनुसार मृत्यु के बारहवें दिन सपिण्डीकरण करने के बाद भी एक वर्ष तक प्रेतत्व बना रहता है| अतः वर्ष पर्यन्त सपिण्डीकरण श्राद्ध तथा प्रतिवर्ष पितृपक्ष में तर्पण एवं श्राद्ध आदि अनिवार्य रूप से करना  चाहिए| क्योंकि जीवन में सुख-शान्ति एवं समृद्धि हेतु पितरों की सन्तुष्टि परम आवश्यक है|