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अभिशप्त मैं

:- “पूनम यह लो पैसे और दो किलो बाजरे का आटा लेती आ।”

पूनम:- “वो पहले के बकाया पैसे मांग रहा है, परसों कह रहा था कि पहले पैसा लाओ फिर आटा दूंगा।”
माया:- “बोलना उससे कि इसी रूपये में से काट ले और जो हिसाब बचेगा वो अगली बार दे दूंगी।”
पूनम:- “ठीक है” और कराहती हुई उठी दुकान जाने के लिए।
माया भी कमर पकड़कर उठी तो दर्द से कराह उठी। मन ही मन बड़बड़ाते हुए काम पर जाने लगी तो पास ही बैठे हुए छोटे बच्चों की और देखा जो भूखे बैठे खाने की राह देख रहे थे। पति मदन अभी तक सोया पड़ा था। बच्चों के मुंह को देखकर माया रसोई में खाना बनाने चली गई। बड़ी लड़की को उसने आवाज देकर उठाया और काम में जुट गई। सब्जी छौंकते समय उसकी आंखों में आंसू आ गए। कैसा जीवन है हम औरतों का? पति की मार खाओ और पैसा भी कमाने जाओ? उस पर इन बच्चों का भार वो अलग से।
मदन रोज शराब पीकर आता और माया को पीटता था। उससे पैसे मांगता था और न देने पर पीटता था। उसकी बेटियां भी कम दुखी नहीं थी अपने बाप से। रोज मारकर उठाना आम बात थी। कभी लात से, कभी कुछ भी फेंककर मार दिया, इस तरह लड़कियों को उठाना आम बात थी। जिंदगी एक बोझ के सिवा कुछ नहीं लगती थी। “मेरे पास रास्ता भी तो नहीं है कुछ? इन बच्चों को किसके सहारे छोड़ कर जाऊं? और मैं खुद भी कहां जाऊं? मायका भी ऊंच नीच ही समझाएगा और उसका क्या करूं कि हमारे समाज में नहीं चलता यह सब और वैसे भी कितना भी कर लो वह पक्ष पति का ही लेगा। यह सब सुन कर भी दोषी मुझे ही बताया जाएगा। फिर बेचारी बनकर जीना ही एकमात्र पर्याय है।” टीस मारते हुए जख्मों की ओर देखती हुई माया सोचती रही।
चार बच्चों की मां बनाकर मदन ने माया पर घर की जिम्मेदारी का भार भी डाल दिया था। सुबह घर के काम के बाद बाहर घर काम के लिए निकल जाती थी। मुझे इन चुप रहती इन आंखों में कई सवाल दिखते थे। ऐसा लगता कि सवाल वह खुद से कर रही और जवाब भी खुद ही दे रही है। इसी उधेड़बुन में काम करते-करते उसके हाथों की गति तेज और तेज होती जाती।
माया:- “पैसे खत्म हो गए हैं सब्जी, आटा और तेल लाना है।”
मदन:-  “तो मैं क्या करूं? तू् लेकर आ, मेरे पास पैसे नहीं है।”
माया:- “अभी तो मेरे पास भी नहीं है।”
मदन:- “अभी कल ही तो पांच सौ देखे थे तेरे पास वो कहां गए? मुझे काम है दे वो पैसे?”
माया:- “नहीं है, खर्च हो गए।” और दोनों में बहस शुरू हो गई और लड़ते-लड़ते मदन का हाथ माया पर उठ जाता है। उसके हाथ में जो भी चीज आती है चप्पल, बेल्ट,  पाइप, पत्थर उसी से मारते जाता। माया चीखती रही और रोते रही। बड़ी बेटी मां को बचाने आई तो उसे भी मार पड़ गई। मां बेटी दोनों मार खाते रहे और चिल्लाते रहे। यह रोज की दिनचर्या थी।
काम करते-करते माया सोच रही थी कि, “मैं क्यों यह अभिशप्त जीवन जी रही हूं? क्यों नहीं यह सब छोड़ कर चली जाती हूं? यहां ऐसा कौन सा सुख है जिसकी मुझे लालसा है? मार खाने के बाद रात में शरीर पर रेंगते हाथ शरीर से ज्यादा मन की तकलीफ को बढ़ा देते? क्यों मजबूर हूं इस विवशता से भरे जीवन को जीने का जीने के लिए? क्या इसी अवसादपूर्ण जीवन के लिए इस आदमी से रिश्ता जोड़ा था, शादी की थी।” ~प्रियंका वर्मा महेश्वरी