मेडिकल माफियाओं का फैलता संजाल कानून व्यवस्था के लिए एक नयी चुनौती -डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)
Bharatiya Swaroop
November 10, 2022
Uncategorized, कानपुर, देश प्रदेश, लेख/विचार, विविधा
शिक्षा और भूमि के बाद अब मेडिकल माफियाओं का फैलता संजाल कानून व्यवस्था के लिए एक नयी चुनौती बनकर उभरा है| इसके लिए देश की लचर एवं अदूरदर्शी स्वास्थ्य नीतियाँ ही सर्वाधिक जिम्मेदार हैं| वहीँ सरकारी तन्त्र में व्याप्त भ्रष्टाचार कडुवे करेले को नीम का सम्बल प्रदान कर रहा है| हाल ही में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर तथा उड़ीसा के बरहामपुर में मेडिकल माफियाओं के विरुद्ध हुई पुलिसिया कार्रवाई से इस बात को भलीभांति समझा जा सकता है| गोरखपुर के मेडिकल माफिया पर फर्जी दस्तावेज के सहारे मेडिकल कालेज चलाने का आरोप है तो उड़ीसा में एक ऐसा गैंग पुलिस द्वारा पकड़ा गया है जो सरकारी अस्पतालों में भर्ती मरीजों के परिजनों को बहला-फुसला कर प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराने के लिए प्रेरित करता था| जिसके बदले प्राइवेट अस्पतालों से उन्हें दलाली के रूप में मोटी रकम मिलती थी| ऐसे मेडिकल माफिया मात्र गोरखपुर और बरहामपुर में ही नहीं बल्कि देश के कोने-कोने में फैले हुए हैं| जो अपनी तिजोरी भरने के लिए सदैव आम जन के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करते हैं| मानक को ताक पर रखकर गली-गली चल रहे नर्सिंग होम स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की मिली भगत से चिकित्सा सेवा के नाम पर जो कुछ कर रहे हैं वह भी अब धीरे-धीरे उजागर होने लगा है| अनगिनत झोलाछाप डॉक्टर और फार्मासिस्ट स्वयं का नर्सिंग होम खोलकर बैठे हैं और सुबह-शाम डॉक्टर बनकर ओपीडी करते हैं| जिससे इनके झांसे में आने वाले आम जन का जीवन संकट में पड़ना स्वाभाविक है| यह सर्वविदित है कि लगभग सभी सरकारी डॉक्टर अपना छोटा-बड़ा नर्सिंग होम चलाते हैं| लेकिन अब तो सरकारी अस्पतालों के फार्मासिस्ट एवं कर्मचारी तक भी अपना-अपना निजी अस्पताल खोले हुए हैं| जहाँ मानक की धज्जियाँ उड़ती हुई कभी भी देखी जा सकती हैं| ज्यादातर ने अपने यहाँ मानक विहीन ट्रामा सेंटर, आई.सी.यू. (इंटेंसिव केयर यूनिट) तथा एन.आई.सी.यू.(नियोनेटल इंटेंसिव केयर यूनिट) तक खोल रखा है| जिसके नाम पर गम्भीर मरीजों से पहले तो जमकर वसूली होती है और जब मरीज की हालत ज्यादा अधिक गम्भीर हो जाती है तब उनके परिजनों से कहीं और ले जाने के लिए कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है| इस परिस्थिति में दो-चार प्रतिशत सौभाग्यशाली मरीजों को छोड़कर शेष की मृत्यु हो जाना सुनिश्चित है| मरीज की मृत्यु से आहत परिजन यदि हंगामा करते हैं तो कानून के रक्षक अस्पतालों की सुरक्षा में तटस्थ नजर आते हैं| परिणामस्वरूप परिजनों को अपने मरीज की मृत्यु को विधि का लेख मानकर सन्तोष करना पड़ता है और मेडिकल माफिया फिर नये शिकार की प्रतीक्षा में लग जाते हैं| कुछ जागरूक परिजन यदि इलाज में हुई लापरवाही की शिकायत स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों से करते हैं तो जाँच के नाम पर उन्हें परेशान करते हुए शासनादेश संख्या 13-1/97-का-1/97 का हवाला देकर शिकायत से सम्बन्धित शपथ-पत्र एवं साक्ष्य के साथ बयान देने हेतु उपस्थित होने का निर्देश दिया जाता है| जो एक सामान्य व्यक्ति के लिए दुरूह कार्य जैसा है| इसलिए कई शिकायतकर्ता जाते ही नहीं हैं| तो कई पर अस्पताल से जुड़े लोग साम, दाम एवं दण्ड की नीति अपनाकर शिकायत वापस लेने का दबाव बनाते हैं और प्रायः सफल भी होते हैं| दोनों ही मामलों में अपस्ताल सञ्चालकों पर लगाये गये आरोप फर्जी सिद्ध करते हुए उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया जाता है| जो शिकायतकर्ता शपथ-पत्र, साक्ष्य और बयान देने हेतु पहुँच भी जाते हैं| उन्हें तरह-तरह के पश्नों और दलीलें देकर हतोत्साहित करने का प्रयास होता है| मसलन ‘आप उस अपस्ताल में गये ही क्यों?’, ‘आपने उस अपस्ताल के डाक्टरों की डिग्री देखे बिना उनसे इलाज क्यों शुरू करवाया?’, ‘आपके मरीज की रिपोर्ट देखकर लगता है कि उनकी हालत बहुत ख़राब थी लेकिन उनका इलाज जितना हुआ है वह सही हुआ है|’ या ‘उनकी उम्र बहुत ज्यादा थी’ आदि बेतुके सवालों और कुतर्कों के माध्यम से अस्पताल संचालकों को बचाने का पूरा प्रयास किया जाता है| ऐसे में मेडिकल माफियाओं के हौंसले बुलन्द होना स्वाभाविक है|
जहाँ तक निजी अस्पतालों के मानक की बात है तो जानकारों के मुताबिक प्रति 20 बेड वाले अस्पताल में कम से कम एक एमबीबीएस डॉक्टर चौबीस घण्टे उपलब्ध रहना चाहिए| नर्सें भी जीएनएम (जनरल नर्सिग एण्ड मिडवाईफरी) की उपाधि प्राप्त होनी चाहिए| आपरेशन थियेटर में कम से कम एक ओटी टेक्नीशियन चौबीस घण्टे होना अनिवार्य है| इसी प्रकार आई.सी.यू. और एन.आई.सी.यू. में पूर्ण प्रशिक्षित डाक्टरों की टीम चौबीस घण्टे उपलब्ध रहना चाहिए| जिसमें एक बेहोशी का डॉक्टर अर्थात एनेस्थेटिस्ट होना आवश्यक है| लेकिन महज कुछ निजी अस्पतालों को छोड़ दें तो शायद ही कोई ऐसा नर्सिंग होम हो जो उपरोक्त कसौटी पर खरा उतरे| लेकिन चिकित्साधिकारियों की दृष्टि में शत-प्रतिशत अस्पताल पूर्ण मानक के साथ चल रहे हैं| स्वास्थ्य विभाग के एक उच्च अधिकारी ने बताया कि जब भी कोई हमारे पास सम्पूर्ण कागजी औपचारिकताओं के साथ नर्सिंग होम का रजिस्ट्रेशन करवाने आता है तो हमारी मजबूरी है कि हमें उसका रजिस्ट्रेशन करना पड़ेगा| इससे सिद्ध होता है कि स्वास्थ्य विभाग की दृष्टि में प्रत्येक अस्पताल कागजी रूप से सभी मानकों से युक्त है| लेकिन यह सुनिश्चित कौन करेगा कि व्यावहारिक धरातल पर भी सम्पूर्ण मानकों के अनुसार सभी नर्सिंग होम संचालित हो रहे हैं? आम आदमी चिकित्साधिकारियों के उस भरोसे पर ही अपना इलाज करवाने किसी निजी अस्पताल में जाता है कि न केवल उसका रजिस्ट्रेशन सभी आवश्यक मानकों को पूरा करने के बाद ही किया गया है बल्कि चिकित्साधिकारियों की सतत निगरानी में उसका सञ्चालन भी मानक के अनुरूप हो रहा है| क्या यह व्यावहारिक रूप से सम्भव है कि मरीज इलाज करवाने से पहले डाक्टरों की डिग्री चेक करे? कदाचित कोई ऐसा प्रयास करे भी तो वह यह कैसे सुनिश्चित करेगा कि उसे जो डिग्री दिखाई जा रही है वह फर्जी है या असली है| गोरखपुर का मेडिकल माफिया फर्जी दस्तावेज दिखाकर ही तो मेडिकल छात्रों के एडमीशन ले रहा था और छात्र उन दस्तावेजों को असली समझकर अपना एडमीशन करवा रहे थे| इससे सिद्ध होता है कि दस्तावेज की जाँच एक एक्सपर्ट ही कर सकता है न कि कोई सामान्य व्यक्ति| शायद इसीलिए विशेषज्ञों की पूरी टीम चिकित्साधिकारियों के रूप में तैनात की जाती है| लेकिन दुर्भाग्य से वह टीम मौका पड़ने पर अपने नकारेपन और लापरवाही का ठीकरा आम आदमी के सर फोड़कर मेडिकल माफियाओं को बचाने का पूरा प्रयास करती है| सरकारी अस्पताल के डाक्टरों, फार्मासिस्टों या अन्य कर्मचारियों द्वारा सञ्चालित निजी अस्पतालों के किसी भी दस्तावेज में उक्त डॉक्टर, फार्मासिस्ट या कर्मचारी का नाम नहीं होता है| जबकि व्यावहारिक रूप से वही उसके वास्तविक सञ्चालक एवं मुख्य चिकित्सक होते हैं| आम आदमी उन्हीं को डॉक्टर मानकर इलाज करवाने जाता है| ऐसे अस्पतालों में हुई लापरवाही की शिकायत प्रायः उसी तथाकथित सञ्चालक के नाम पर होती है और होनी भी चाहिए| तब जाँच दल यह कहते हुए पल्ला झाड़ने का प्रयास करते हैं कि क्या करें हमें कोई डाक्यूमेंट्री प्रूफ नहीं मिला| जबकि यदि वह गंभीरतापूर्वक जाँच करते हुए वहाँ भर्ती मरीजों से पूंछतांछ करें, वहाँ के पुराने मरीजों तथा अस्पताल के आसपास रहने वालों से जानकारी करें तो उन्हें इस बात का व्यावहारिक प्रूफ सहजता से मिल जायेगा कि अस्पताल का वास्तविक डॉक्टर एवं सञ्चालक कौन है| निजी अस्पतालों की एक और विशेषता है कि उनका मेडिकल स्टोर भी उसी परिसर में होता है| वहाँ की दवा बाहर के किसी मेडिकल स्टोर पर नहीं मिलती है| एक्सरे, एम्.आर,आई, से लेकर ब्लड जाँच तक यदि बाहर से करवानी है तो वह भी उन्हीं की बताई पैथालाजी या जाँच सेंटर में होगी| अन्य कहीं की जांच रिपोर्ट स्वीकार्य नहीं होती| कुल मिलाकर चिकित्सा सेवा के नाम पर चारो तरफ लूट मची हुई है| लचर एवं अदूरदर्शी स्वास्थ्य नीतियों तथा चिकित्साधिकारियों की कृपा से मेडिकल माफियाओं का साम्राज्य सतत रूप से देश भर में अपनी जड़े जमा रहा है| लेकिन इस पर नियन्त्रण लगाने का कहीं कोई प्रयास होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है| सिर्फ एक उम्मीद की किरण स्थाई लोक अदालतों से आती हुई अवश्य दिखाई देती है| यदि आपके साथ इलाज में कहीं कोई लापरवाही या अनावश्यक धन उगाही हुई है तो आप अपने जिला न्यायालय परिसर में स्थित स्थाई लोक अदालत जा सकते हैं| जहाँ कम से कम औपचारिकताओं में निःशुल्क एवं त्वरित न्याय आपको प्राप्त होगा|