वर्तमान में आधुनिकता हमारी सहजता पर इस कदर हावी हो चुकी है कि हम पहले से कहीं ज़्यादा कनेक्टेड हुए हैं ,और कहीं ज़्यादा अकेले भी ! स्क्रीनों में झांकती हुई हमारी पत्थर हो चुकी आँखें भूल गयी हैं किसी की आँखों में देख कर बात करने का तिलिस्म.हर समय गैजेट्स पर घूमने वाली उँगलियाँ भूल गयी हैं किसी का हाथ थाम कर सूर्यास्त देखना।
हर लम्हा एक photo opportunity बन गया है ,और यादें एक टाइम लाइन पर सहेजे हुए इवेंट।
आवाज़ों का शोर जितना ऊंचा है उतना ही गहरा हुआ है,अंदर का सन्नाटा !रिश्तों के मायने ही नहीं उनकी हक़ीक़तें भी बदल गयी हैं ,अब हम सब एक दूसरे के विश्लेषक और आलोचक बन गए है और एक्सपर्ट भी ,दोस्त दुनिया में बहुत कम हो गए हैं .
ऐसे में डिप्रेशन पहले से भी कहीं गहरा ब्लैक होल बन गया है। अचानक जब कोई कूद जाता है हॉस्पिटल की खिड़की से या इतनी नींद की गोलियां खा लेता है कि कभी न जागना पड़े तब हम थोड़ा सा pause करते हैं और अगली ही सुबह भूल जाते हैं ..साभार
श्रीमती पूर्णिमा तिवारी
ब्याख्याता