झरोखे में से झांक रहा था
चांद आज कुछ कह रहा था
एक अरसे से मुलाकात नहीं थी
जाने क्यों चांद में वो बात नहीं थी
खेल लुकाछिपी का खेल रहा था
और संग हवाओं के झूम रहा था
चंचल चितवन लिये डोल रहा था
जाने क्यों मन अपनी ओर खींच रहा था
रात आधी थी बात भी अधूरी थी
वो बस अपनी ही मौज में गुम हो रहा था
प्रियंका वर्मा महेश्वरी