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होली का महत्व

 योग का नियमित अभ्यास किसी भी मनुष्य को प्रह्लाद बना सकता है – वही प्रह्लाद, जिसकी कथाएँ पुराणों में निहित हैं और जिसे हिरण्यकश्यप ने फाल्गुन मॉस की पूर्णिमा को, होलिका दहन में जलाकर मारने का प्रयास किया था। किन्तु उस रात की शक्ति ही कुछ ऐसी थी कि प्रह्लाद बिना जले आग से बाहर आ गया और होलिका , जिसे न जलने का वरदान प्राप्त था, फिर भी जलकर राख़ हो गयी।

पुराणों में निहित कथाएँ केवल मनोरंजन का साधन नहीं हैं बल्कि ज्ञान का भंडार हैं। एक साधारण मनुष्य उन्हें सिर्फ कहानियाँ ही मानता है। सीमित बुद्धि के कारण उसमें इन कथाओं में निहित ज्ञान को जानने की जिज्ञासा ही नहीं होती। और यही इन कथाओं का उद्देश्य भी है कि उनमें छिपे ज्ञान और रहस्यपूर्ण शक्तियों तक एक योग्य साधक ही पहुँच सके।

ज्ञान की प्राप्ति और दैविक शक्तियों का अनुभव गुरु द्वारा निर्धारित क्रियाओं और साधनाओं के नियमित अभ्यास से ही संभव हैं।

यह सृष्टि पांच तत्वों के संयोजन और सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई है। जब शरीर में कोई दोष होता है तभी ये तत्व मिलकर उस शरीर की संरचना करते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, वात, पित्त और कफ ही शरीर के दोष हैं तथा वेदानुसार कोई नकारात्मक विचार या स्वार्थ की भावना ही शरीर में दोष का कारण है।

यही दोष, एक मनुष्य की मूल प्रकृति को निर्धारित करते हैं। तत्वों की शुद्धता और अशुद्धता का स्तर ही एक व्यक्ति की विचार धारा को निर्धारित करता है। अगर तत्व शुद्ध हैं तो विचार उच्चकोटि के होंगे, परमार्थ के होंगे और यदि तत्व अशुद्ध है तो मनुष्य के विचार, स्वार्थ भावना और स्थूल स्तर के होंगे।

पञ्च तत्वों में अग्नि तत्व का उल्लेख, विशेष महत्त्वपूर्ण है क्योंकि केवल इसी तत्व को दूषित नहीं किया जा सकता। यही एक ऐसा तत्व है जो गुरुत्वाकर्षण के बावजूद ऊपर की ओर उठता है। इसके संपर्क में जो कुछ भी आता है वह शुद्ध और पवित्र हो जाता है। यही अग्नि, मनुष्य का उत्थान करने की क्षमता रखती है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऋग वेद का पहला शब्द अग्नि ही है।

अग्नि की शक्ति को प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष दिन बहुत महत्वपूर्ण हैं जिसमें होली भी एक है। इस दिन होलिका, प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठ गयी थी किन्तु वह एक साधिका थी और अग्नि द्वारा उसके पवित्र होने का समय आ चुका था,इसलिए वरदान होते हुए भी अग्नि ने उसे स्वीकार कर लिया और प्रह्लाद , जो पहले से ही पवित्र और विशुद्ध था, बिना जले बाहर आ गया। जो शरीर पूर्ण रूप से शुद्ध होता है, अग्नि उसको प्रभावित नहीं करती। अग्नि से तात्पर्य स्थूल अग्नि तो है ही साथ ही हमारे जीवन में किसी भी प्रकार की नकारात्मकता, अशांति या विघ्न से भी है।

एक पवित्र देह उच्च लोकों में जाने योग्य है जहाँ उसका संपर्क दैविक शक्तियों से रहता है और ऐसी आत्मा सदैव आनन्द की स्थिति में होती है वहीँ एक अशुद्ध शरीर इस सँसार के भोगों को भोगने में व्यस्त रहता है,भोग जो क्षणभंगुर तो हैं ही साथ ही उस प्राणी को रोग की ओर भी ले जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को लगता है कि उसका मनोरंजन हो रहा है और उसका समय सही व्यतीत हो रहा है, किन्तु वास्तव में समय ही उसे व्यतीत कर रहा है और रोगों की ओर ले जा रहा है क्योंकि रोग ही तो भोग का विपरीत है। सृष्टि स्वयं भी तो एक दूसरे के विपरीत पहलुओं का ही परिणाम है।

सनातन क्रिया में भी होली के दिन करने के लिए कुछ शुद्दिकरण प्रक्रियाएं दी गयी हैं। इसमें साधक अपने चारों और अग्नि चक्र बना कर, गुरु द्वारा दिए गए मन्त्रों का जाप करते है जिससे तुरंत ही उनमे आत्मिक शुद्धि की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।

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