आईने के सामने खड़ी थी मैं। क्रीम कलर की बॉर्डर वाली साड़ी मुझ पर बहुत फब रही थी लेकिन मैं आईने में दूसरे रंग की साड़ी में खड़ी नजर आ रही थी सुर्ख लाल रंग की साड़ी…. माथे पर बड़ी सी बिंदी, आंखों में काजल, होठों पर लिपस्टिक और मैं खुद पर ही इतरा रही थी। मैंने अपने प्रतिरूप को छूना चाहा मगर यह क्या अचानक मैं खो गई और जो सामने थी वह एक विधवा थी। कबीर के जाने के बाद मेरे जीवन से सभी रंग उड़ चुके थे। खुशियों ने मुस्कुराना बंद कर दिया था और जिम्मेदारियों का बोझ मुझे परिपक्व बना रहा था। धीरे धीरे मेरा जीवन सामान्य होने लगा था लेकिन शायद मैं अंदर ही अंदर कुछ टूट सी रही थी… कोई कुछ महसूस नहीं कर रहा था लेकिन अंदर से कुछ दरक रहा था मगर फिर भी मैं मुस्कुरा रही थी, जी रही थी। उदासी मुझ पर हावी ना होने पाए इसलिए मैंने खुद को काम में गुथा लिया था। मयंक की जिम्मेदारी थी और उसके लिए मुझे जीना था, हंसना था।
मैं:- “मयंक! मैं कॉलेज के लिए निकल रही हूं, तुम ट्यूशन से आते वक्त लॉन्ड्री से होते हुए आना कुछ कपड़े ड्राइक्लीन को दिए हुए हैं वह लेते आना।”
मयंक:- “ठीक है मां।”
विचारों में सृजनात्मकता और नवीनता मेरा स्वभाव स्वभाव है और मेरा यह स्वभाव जल्दी से किसी को रास नहीं आता। वैसे भी एक सामाजिक धारणा है कि एक विधवा स्त्री सपने कैसे देख सकती है? गाड़ी चलाते हुए यह विचार मेरे जेहन में घूम रहे थे। कॉलेज में फाइलों और क्लास में उलझे रहकर मैं यह सब भूल जाती और जब मन शांत होकर अकेला होता तब मुझे कबीर बहुत याद आते। कबीर तुम हमेशा कहते थे ना कि तुम्हारे ऊपर चटक रंग ज्यादा अच्छे लगते हैं मरून रंग तुम पर कुछ ज्यादा ही अच्छा लगता है। तुम हमेशा ऐसे ही चटक रंग पहनना, ज्यादा सुंदर लगती हो। कबीर के यह शब्द आज भी मेरे मन को छू जाते हैं। मुझे याद है एक बार मंदिर जाते समय मैंने हल्के जामुनी रंग की साड़ी पहनी थी। तब कबीर ने कहा, “अरे यह क्या पहन लिया? तुम्हारे ऊपर बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा। गहरे रंग का कुछ पहनना चाहिए” और उन्होंने गहरे हरे रंग की साड़ी निकाल कर दी मुझे। आश्चर्य होता था मुझे कि कोई व्यक्ति इतना ध्यान कैसे रख सकता है वो भी कपड़ों का, कपड़ों के रंगों का मगर कबीर ध्यान देते थे। कभी अच्छा भी लगता था तो कभी झल्लाहट भी होती थी मुझे लेकिन मैं आज इन सब चीजों की कमी महसूस करती हूं।
कॉलेज के लिए तैयार होते समय अचानक मेरा हाथ मरून रंग की साड़ी पर गया फिर पता नहीं क्यों मरुन साड़ी पहनकर ही ऑफिस चली गई। उस दिन मैं सबकी आंखों का केंद्र थी मगर मैंने किसी की आंख की परवाह नहीं की। मुझे जीना था, खुश रहना था मयंक के लिए, कबीर के लिए और अपने लिए। मैंने धीरे-धीरे सफेद रंग को अलविदा कहा और सभी रंगों को आत्मसात कर लिया सिवाय एक रंग के सुर्ख लाल रंग।
अब मैं सजने संवरने लगी थी तो लोगों की आंखों में चुभने भी लगी थी। लोगों की प्रतिक्रियाएं भी आती, “देखो तो कैसी है! विधवा है लेकिन तैयार कैसे हो रही?” कुछ तो इतने रूढ़ होते कि चरित्र पर ही उंगली उठा देते थे। फिर भी मैं हारी नहीं। मेरा आत्मविश्वास मजबूत होता गया और धीरे-धीरे लोगों को मैं उत्तर भी देने लगी।
निम्मी मासी:- “अरे बेटा! अब शुभ कामों में बुलाया तो है मगर जरा दूर बैठा करो और इतनी चटक रंग की साड़ी क्यों पहनी? हल्के रंग की पहनी चाहिए। अब शोभा नहीं देता इस तरह से। समाज के सभी लोग देखते हैं।”
मैं:- “मासी! जमाना बदल गया है और लोगों की सोच भी बदल गई है। आजकल के बच्चे नहीं मानते हैं यह सब। अब देखो मिलोनी बुला रही है और बोल रही है कि “फेरों के वक्त पास में ही रहना बुआजी। भैया भाभी भी बुला रहे हैं, सम्मान दे रहे तो बिना वजह का बखेड़ा क्यों खड़ा करूं?” मासी बुरा सा मुंह बना कर रह गई। भाभी भी पास आकर बोली, “हां बुआ जी क्या पति के जाने से औरत सिंगार करना छोड़ दे, जीना छोड़ दे, सपने देखना छोड़ दे, अपनी इच्छाओं को मार दे, जिंदा लाश बन कर रहे और आगे का जीवन निराशा और अकेलेपन में गुजारे।”
बुआ:- “हमने भी तो ऐसे ही गुजारा है जीवन। पति के जाने के बाद कैसा उत्सव? विधवा होने के बाद स्त्री के लिए यह सब अशोभनीय है, पाप है।”
भाभी:- “कुछ नहीं होता बुआ जी! नंददोई जी को जीजी हमेशा तैयार और खुश ही अच्छी लगती थी और अब जब अकेली रह गई हैं तो उन्हें निराशा में धकेलना क्या ठीक है? उन्हें हमारे साथ, हम सब के बीच में रहकर खुशियां मनानी चाहिए”।
मुझे गहने, कपड़े, मेंहदी, काजल, लिपस्टिक, बिंदी लगाये देखकर लोगों में खुसफुस होते रहती लेकिन मैं परवाह नहीं करती क्योंकि मुझे पता है समय परिवर्तनशील है और कुछ समय बाद यह लोग चुप हो जाएंगे और समर्थन भी देंगे क्योंकि जब इन्हीं में से ही किसी की बेटी पर ऐसा दुख आएगा तब। पास ही के मंदिर में शाम की आरती की आवाज आनी शुरू हो गई थी और मेरा मन धीरे-धीरे शांत हो गया होता जा रहा था।
प्रियंका वर्मा महेश्वरी